बालक का गुरुकुल-प्रवेश –रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः गृत्समदः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः क. आर्षी गायत्री,र, निवृद् आर्षी उष्णिक्।
कविश्वे देवासऽआर्गत शृणुता म इमहर्वम् । । एवं बर्हिर्निषीदत।’उपयामगृहीतोऽसि विश्वेभ्यस्त्वा । देवेभ्यएष ते योनिर्विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः ॥
-यजु० ७ । ३४
शिष्य कहता है—( विश्वे देवासः ) हे सब विद्वान् गुरुजनो! ( आ गत ) आओ, ( शृणुत) सुनो ( मे ) मेरे ( इमं हवम् ) इस पढ़ाये हुए पाठ को, (इदं बर्हिः ) इस कुशासन पर (निषीदत ) बैठो। आगे माता-पिता बालक को कहते हैं ( उपयामगृहीतः असि) तू यम-नियमों से जकड़ा हुआ है। हमने ( त्वी ) तुझे (विश्वेभ्यः देवेभ्यः ) सब विद्वान् गुरुओं को सौंपा है, (एषः ) यह गुरुकुल ( ते योनि:४) तेरा घर है। हमने ( त्वी ) तुझे (विश्वेभ्यः देवेभ्यः ) सब दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए [गुरुकुल में प्रविष्ट किया है] ।
वैदिक शिक्षापद्धति के अनुसार माता-पिता द्वारा गुरुकुल में प्रविष्ट कराया गया बालक गुरुजनों को ही हो जाता है। आचार्य के साथ उसका पिता-पुत्र का सम्बन्ध होता है। आचार्य उसका पिता और सावित्री (गायत्री ऋचा) उसकी माता होती है। प्रस्तुत मन्त्र के पूर्वभाग में गुरुकुल में प्रविष्ट शिष्य गुरुजनों को आदर के साथ बुलाता हुआ कह रहा है। कि हे सब विद्वान् गुरुजनो! आओ, इस कुशानिर्मित आसन पर बैठो, आप जो पाठ पढ़ा चुके हैं, उसे सुनो। इससे सूचित होता है कि गुरुजनों का यह कर्तव्य है कि वे दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, षण्मासिक, वार्षिक
बालक का गुरुकुल-प्रवेश –रामनाथ विद्यालंकार