बादलों में ऊपर-नीचे चलनेवाले विमान -रामनाथ विद्यालंकार

बादलों में ऊपर-नीचे चलनेवाले  विमान-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः देववातः । देवता नावः । छन्दः विराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् ।

प्र पर्वतस्य वृषभस्य पृष्ठान्नावश्चरन्ति स्वसिचऽइयानाः । ताऽआर्ववृत्रन्नधुरागुक्ताऽअहिं बुध्न्युमनुरीयमाणाः । विष्णोर्विक्रमणमसि विष्णोर्विक्रान्तमसि विष्णोः क्रान्तमसि॥

-यजु० १० । १९

( वृषभस्य) वर्षा करनेवाले ( पर्वतस्य ) मेघ’ के ( पृष्ठात् ) पृष्ठ से ( स्वसिचः) स्वयं को मेघजल से सिक्त करनेवाली ( इयानाः३ ) गतिशील, वेगवती (नावः ) विमान रूपिणी नौकाएँ ( चरन्ति ) चलती हैं । ( ताः ) वे ( बुध्न्यम् अहिम् अनु रीयमाणाः५) अन्तरिक्षवर्ती मेघ में गति करती हुई ( अधराक् उदक्ताः ) नीचे से ऊपर जाती हुई (आववृत्रन्६ ) चक्कर काटती हैं। हे विमानरूप नौका की उड़ान ! तू (विष्णोःविक्रमणम् असि ) सूर्य का विक्रमण है, सूर्य की यात्रा के समान है, (विष्णोःविक्रान्तम् असि ) वायु का चरण-न्यास है, ( विष्णोः क्रान्तम् असि ) शिल्प-यज्ञ की क्रान्ति है। |

पर्वत शब्द निघण्टु कोष में मेघवाची शब्दों में पठित है। वेद में इसके पहाड़ और मेघ दोनों अर्थ होते हैं। प्रस्तुत मन्त्र में मेघों के मध्य चलनेवाली नौकाओं का वर्णन है। मेघ अन्तरिक्ष में होते हैं । अन्तरिक्ष में नौकाएँ नहीं चल सकतीं, नौकाओं की आकृतिवाले विमान ही चल सकते हैं। नौका की आकृतिवाला होने से लक्षणा के प्रयोग से विमानों को नौका कह दिया गया है। अन्तरिक्ष में चलनेवाली नौकाओं की चर्चा वेद में अन्यत्र भी मिलती है। सामान्यतः जो विमान अन्तरिक्ष में उड़ते हैं, वे बादलों से नीचे उड़ते हैं। इस मन्त्र में बादलों में या बादलों से भी ऊपर उड़ान भरनेवाले विमानों का वर्णन है। ये विमान भूमि से अन्तरिक्ष में पहुँच कर मेघों में घुसकर  वर्षा करनेवाले मेघ के एक छोर से दूसरे छोर तक उडान भरते हुए चले जाते हैं। मेघ-जल से ये गीले भी होते रहते हैं, फिर भी इनमें कोई विकार नहीं आता। ये बहुत वेग से चलते हैं। ‘बुध्न्य अहि’ अन्तरिक्षवर्ती मेघ का ही नाम है। उसमें ये गतिशील होते हैं। नीचे से ऊपर की ओर भी उड़ान लेते हैं। बादल को पार करके उससे ऊपर भी पहुँच जाते हैं। बादलों के आर-पार, नीचे-ऊपर चक्कर काटते हैं। अन्त में विमानरूप नौका की उड़ान के विषय में कहा गया है कि तू विष्णु सूर्य के विक्रमण या उसकी यात्रा के समान है। जैसे सूर्य प्राची में उदित होकर उत्क्रमण करता-करता मध्याकाश में पहुँच जाता है, ऐसे ही विमान भी भूमि से ऊपर उठता उठता अन्तरिक्षवर्ती मेघों के बीच में पहुँच कर यात्रा करता है और कभी उससे भी ऊपर उठ जाता है। विष्णु का अर्थ सूर्य के अतिरिक्त वायु भी होता है। विमान की उड़ान वायु के चरण न्यास के समान है, जैसे वायु कभी पूर्व दिशा की ओर, कभी पश्चिम दिशा की ओर, कभी दक्षिण या उत्तर दिशा की ओर तथा कभी नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे की ओर, और कभी चक्रवात के रूप में चलता है, ऐसे ही विमान भी उड़ान भरता है। विष्णु का अर्थ यज्ञ भी होता है । शिल्प भी एक यज्ञ है। विमान का निर्माण और उसकी विविध दिशाओं में उड़ाने भरना शिल्पयज्ञ की एक क्रान्ति है। | आओ, हम भी विमानों में बैठकर मेघमण्डल की यात्रा का आनन्द लें।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पर्वतळमेघ । निघं० १.१०

२. स्वं सिञ्चन्तीति स्वसिचः ।

३. इण् गतौ, चानश्=आन प्रत्यय।

४. अहि=मेघ, निघं० १.१०, अहिर्बुध्न्यः योऽहि: स बुध्न्यः , बुध्नम्।अन्तरिक्षं तन्निवासात् । निरु० १०.३०।।

५.रीयते= गच्छति । निघं० २.१४।

६. आ वृतु वर्तने, णिच्, लुङ्, रक् का आगम छान्दस।

७. निरु० २.२२ ।

८. नौभिरात्मन्वतीभिः अन्तरिक्षप्रद्भिः अपोदकाभि: । ऋ० १.११६.३

९. (विष्णो:) व्यापकस्य वायो:। -द० ।

१०.यज्ञो वै विष्णुः । –श० १.१.२.१३ 3 u

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