प्रभु का अमर नाम सोम -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः गोतमः । देवता सोमः । छन्दः निवृद् आर्षी पङ्किः।
मधुमतीर्नुऽइर्घस्कृधि यत्ते सोमादाभ्यं नाम जागृवि । तस्मै ते सो सोमाय स्वाहा स्वाहोर्वन्तरिक्षमन्वेमि॥
–यजु० ७ । २
( नः इष:१) हमारी इच्छाओं को ( मधुमतीः ) मधुर (कृधि ) कर । ( यत् ते ) जो तेरा (सोम ) हे सोम ( अदाभ्यं नाम ) अदभ्य अमर नाम है, वह हमारे सम्मुख (जागृवि ) सदा जागृत रहे । (तस्मै ते सोमाय ) उस तेरे सोम नाम का ( सोम) हे परमात्मन् (स्वाहा ) हम सुप्रचार करते हैं। ( स्वाहा ) हम तुझे आत्मसमर्पण करते हैं। तेरी कृपा से मैं (उरु अन्तरिक्षं ) विस्तीर्म अन्तरिक्ष में ( अन्वेमि) पहुँच रहा हूँ।
हम जो इच्छाएँ करते हैं, वे मधुर भी हो सकती हैं और कटु भी। क्या ही अच्छा हो नदी में बाढ़ आ जाए और नदी किनारे बसा यह नया नगर उजड़ जाए, इस विशाल दस मञ्जिले भवन पर बिजली गिर जाए तो कैसा अच्छा हो, अन्तरिक्ष में उड़ते हए इस वायुयान में आग लग जाए, तो इन उड़ाकुओं को धनी होने का मजा मिल जाए, ऐसी इच्छाएँ कटु कहलाती हैं। इनके विपरीत जनकल्याण की भावनाएँ मधुर इच्छाओं की श्रेणी में आती हैं। यथा, संसार में सब लोग ईश्वरपूजक, धर्मात्मा और सुखी हों, सब राष्ट्र परस्पर प्रेम से रहें और विश्वशान्ति का स्वप्न पूरा हो। हम शान्ति के अग्रदूत सोम प्रभु से याचना करते हैं कि हमारे अन्दर मधुर इच्छाएँ ही जन्म लें। हम अपने पड़ोसी का हित चाहें और समस्त संसार के हित की कामना करें। सुख, शान्ति, सरसता बरसानेवनाला प्रभु का ‘सोम’ नाम अमर है। हम चाहते हैं। कि वह हमारे सम्मुख सदा जागृत रहे, जिससे हम संसार की सुख, शान्ति एवं सरसता की मधुर इच्छाएँ सदा अपने मन में संजोते रहें और उनकी पूर्ति के लिए प्रयत्नशील हों। हे प्रभु ! हम तुम्हारे सोम नाम की ‘स्वाहा-ध्वनि’ करते हैं, उसका जन-जन में सुप्रचार करते हैं, जिससे सारा जन-समुदाय शान्ति का उपासक बन जाए। हे सोम प्रभु! हम तुम्हारे प्रति अपने आत्मा को ‘स्वाहा’ करते हैं, तुम्हें आत्म-समर्पण करते हैं। हे सोम! तुम्हारी कृपा, तुम्हारी सदिच्छा, तुम्हारी प्रेरणा, तुम्हारा आशीर्वाद हमें प्राप्त हो जाए, तो हम नीले गगन में चमकाए हुए तुम्हारे चाँद के समान अन्तरिक्ष में पहुँच सकते हैं, पृथिवी से उठकर उन्नति के शिखर पर आसीन हो सकते हैं। तम्हारी सत्प्रेरणा से हमने उड़ान भरनी प्रारम्भ कर दी है। अब हम ऊर्ध्वयात्रा करते-करते विशाल वैज्ञानिक अन्तरिक्ष में जा पहुँचे हैं। सर्वसाधारण भी अपेक्षा बहुत ऊँचे आध्यात्मिक स्तर पर भी पहुँच गये हैं। अब हम तुम्हारे बनाये सौम्य चन्द्रमा के समान चमक रहे हैं, धरती पर सरसता का स्रोत बहा रहे हैं। हे प्रभु, तुम स्वयं सोम’ हो, तुमने हमें भी ‘सोम’ बना दिया है। हम तुम्हारे प्रति नमन करते हैं।
पाद-टिप्पणियाँ
१. इषु इच्छायाम्, तुदादिः ।
२. अदाभ्यम् अहिंसनीयम्-द० । दभ्नोति वधकर्मा, निघं० २.१९।।
३. सु-आह=स्वाहा।।
४. सु-आ-हा धातु त्यागार्थक, सुन्दर रूप से सर्वत: समर्पण।
५. अनु-इण् गतौ, अदादिः ।
प्रभु का अमर नाम सोम -रामनाथ विद्यालंकार