प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार

प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषयः देवा: । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

पर्यः पृथिव्यां पयऽओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पर्यस्वती: प्रदिशः सन्तु मह्यम् ।

-यजु० १८ । ३६ |

हे अग्रनायक परमेश्वर ! आपने ( पृथिव्यां पयः ) पृथिवी में दूध, ( ओषधीषु पयः ) ओषधियों में दूध, ( दिवि पयः ) द्युलोक में दूध, ( अन्तरिक्षे पयः) अन्तरिक्ष में दूध (धाः ) रखा है। ( प्रदिशः ) प्राची आदि मुख्य दिशाएँ भी ( मह्यं ) मेरे । लिए (पयस्वती) दूध-भरी ( सन्तु) हो जाएँ।

देखो, परमात्मा ने विश्व के अनेक स्थानों में दूध रखा हुआ है। पृथिवी में दूध है। पृथिवी में सलोनी मिट्टी का दूध है, स्रोतों-सरिताओं-सरोवरों का दूध है, सोने-चाँदी का दूध है, हीरे-मोतियों का दूध है, गन्धक का दूध है, गौओं का दूध है, वन-उपवनों का दूध है। ये सब दूध हमारे लिए अमृततुल्य हैं। ओषधियों में भी दूध निहित है। ओषधियों में हरियाली का दूध है, पत्तियों का दूध है, फूलों का दूध है, पके फलों का दूध है। द्युलोक में भी दूध रखा हुआ है। द्युलोक में सूर्यप्रकाश का दूध है, नक्षत्रों की ज्योति का दूध है, आकर्षणशक्ति का दूध है। अन्तरिक्ष में भी परमेश्वर ने दूध रखा हुआ है। अन्तरिक्ष में पवन का दूध है, विद्युद् ज्योति का दूध है, पर्जन्य का दूध है, वृष्टि का दूध है। पृथिवी, ओषधि, द्यौ, अन्तरिक्ष के ये दूध हमारे लिए प्राण बरसाते हैं, हमें शक्ति देते हैं, जीवन देते हैं, वरदान देते हैं, आयुष्य देते हैं, अहोरात्र देते हैं, ऋतुएँ देते हैं, संवत्सर देते हैं, समृद्धि देते हैं, सौभाग्य देते हैं, अन्न देते हैं, धन-सम्पदा देते हैं, जागृति देते हैं। ये दूध हमें न मिलें, तो ब्रह्माण्ड से जीवन ही समाप्त हो जाए, प्रगति बिखर जाए, उत्कर्ष रुक जाए, रोहण और आरोहण मिट जाएँ, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की क्रीडा विरत हो जाए। ये दूध न मिलें, तो ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व, क्षत्रिय का क्षात्रबल, वैश्य का वैभव सब लुप्त हो जाएँ। ये दूध न मिलें, तो ब्रह्मचारियों का ब्रह्मचर्य और अध्ययन, गृहस्थों का गृहस्थ धर्म, वानप्रस्थों की आत्मोन्नति और जनसेवा तथा संन्यासियों का परोपकार शशशृङ्गवत् हो जाएँ। इन दूधों से धनी-गरीब की भूख मिटती है, इन दूधों से हमारी जीवन-यात्रा होती है। ये दूध हमारे लिए संजीवन-रस का काम करते हैं, ये दूध हमारे अन्दर प्राण भरते हैं। |

हे परमेश! हे जगदीश्वर ! आपने पृथिवी में ओषधियों में, द्यौ में, अन्तरक्षि में दूध रखा है, तो प्रदिशाओं को भी दूध से भर दो। पूर्व में दूध हो, पश्चिम में दूध हो, उत्तर में दूध हो, दक्षिण में दूध हो । प्रत्येक दिशा दूध से भरपूर हो जाए। प्रत्येक दिशा के वासी दूध पियें, दूध पिलाएँ, दूध में नहाएँ, दूध में सरसें-विकसे, दूध से समृद्ध हों, दूध की पिचकारियाँ छोड़े, दूध की बाल्टियाँ भरें। दिशाओं में दूध की हवाएँ चलें, दूध की वृष्टि हो, दूध के नदी-नाले बहें । शान्ति का दूध हो, प्रेम का दूध हो, आनन्द का दूध हो, उत्कर्ष का दूध हो, सङ्गठन का दूध हो, सहानुभूति का दूध हो, सत्सङ्ग का दूध हो, मैत्री का दूध हो, ईश्वरोपासना का दूध हो।

प्रदिशाएँ मेरे लिए पयस्वती हों -रामनाथ विद्यालंकार 

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