पुनर्जन्म – रामनाथ विद्यालंकार

पुनर्जन्म – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः विरूपः । देवता अग्निः । छन्दः निद् अनुष्टुप् ।

पुर्नरासद्य सर्दनमुपश्चं पृथिवीमग्ने। शेषे मातुर्यथोपस्थेऽन्तर्रस्याशिवतमः ॥

-यजु० १२ । ३९

( अग्ने ) हे जीवात्मन् ! तू एक शरीर छोड़ने के पश्चात् ( पुनः ) फिर ( सदनम् ) मातृगर्भरूप सदन को ( अपः च पृथिवीम्) और जल, पृथिवी आदि पञ्च तत्त्वों को (आसद्य ) प्राप्त करके ( शिवतमः ) अत्यन्त शिव होकर ( अस्याम् अन्तः ) इस पाञ्चभौतिक तनू के अन्दर ( शेषे ) शयन करता रहता है, ( यथा) जैसे कोई बालक (मातुः उपस्थे ) माता की गोद में शयन करता है।

क्या तुम समझते हो कि आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है, जो अमर हो, शरीर की मृत्यु हो जाने पर भी मरती न हो ? क्या तुम चारवाक सम्प्रदाय की नीति पर चलते हुए कहते हो कि जब तक जियो सुख से जियो, अपने पास न हो तो कर्ज लेकर घी पियो, जब शरीर भस्म हो गया, तब संसार में पुन: आगमन कैसा? यदि तुम ऐसा विचार रखते हो तो भूल में हो। वेद कहता है कि हे जीवात्मन् ! तुम्हें पुनः मातृगर्भरूप सदन में आना पड़ेगा, अच्छे-बुरे जैसे तुम्हारे पूर्वजन्म के कर्म होंगे वैसी योनि तुम्हें मिलेगी। सत्कर्म प्रबल होंगे तो मनुष्य जन्म प्राप्त होगा, निकृष्ट कर्म प्रबल होंगे तो पशु-पक्षी, कीट, पतङ्ग, सर्प, वृश्चिक आदि के शरीर में जन्म मिलेगा।

परन्तु यह जीवात्मा पुनर्जन्म प्राप्त करता कैसे है? रज वीर्य में पृथिवी, अप्, तेज, वायु, आकाश इन पञ्च तत्त्वों के यजुर्वेद ज्योति योग से पाञ्चभौतिक शरीर बनता है। जीवात्मा सूक्ष्मशरीरसहित रज-वीर्य के साथ संयुक्त होकर शरीर के विकास में कारण बनता है।” जीव वायु, अन्न, जल अथवा शरीर के छिद्र द्वारा दूसरे के शरीर में ईश्वर की प्रेरणा से प्रविष्ट होता है, जो प्रविष्ट होकर क्रमशः वीर्य में जा, गर्भ में स्थित हो, शरीर धारण कर बाहर आता है। जो स्त्री के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो स्त्री और पुरुष के शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो पुरुष के शरीर में प्रवेश करता है।”२ मन्त्र में पञ्चतत्त्वों के स्थान पर दो ही तत्त्वों का नाम आया है-पृथिवी और अप् । इन दोनों को शेष तीन तत्त्वों का भी उपलक्षण जानना चाहिए। इस प्रकार उपलक्षणन्याय से यहाँ पृथिवी, अप, तेज, वायु, आकाश इन पाँचों तत्त्वों का ग्रहण हो जाता है। कभी कभी जीवात्मा माता के गर्भ में प्रविष्ठ होकर भी फिर बाहर निकल जाता है, तब मृत शिशु का जन्म होता है । जीवित शिशु के माता के गर्भ से बाहर आते समय भी जीव निकल सकता है और उससे पूर्व भी। दोनों अवस्थाओं में मृत शिशु गर्भ से बाहर आता है।

जब जीवात्मा मातृगर्भरूप शिशु के अन्दर विद्यमान रहता हुआ उसका पोषण करता है, तब वह उसके लिए शिवतम होता है। तब जीवात्मा शिशु के शरीर में ऐसे ही शयन करता है, जैसे किसी माता की गोद में उसका शिशु शयन करता है।’ | आओ, हम पुनर्जन्म पर विश्वास लाकर सत्कर्म ही करें, जिससे हमें पुनः मनुष्य-योनि प्राप्त हो, या मुक्ति पाने योग्य कर्म करें, जिससे हम जीवन-मरण के बन्धन से छुटकारा पाकर मुक्ति प्राप्त कर सकें।

पादटिप्पणियाँ

१. यावज्जावत् सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिवेत् ।भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः

२. स० प्र०, समु० ९, स्वामी दयानन्द ।

 पुनर्जन्म – रामनाथ विद्यालंकार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *