पारिवारिक यज्ञ सत्सङ्ग -रामनाथ विद्यालंकार

पारिवारिक यज्ञ सत्सङ्ग -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः अप्रतिरथः । देवता अग्निः । छन्द निवृद् आर्षी अनुष्टुप् ।

यस्य कुर्मो गृहे हुविस्तमग्ने वर्द्धय त्वम्। तस्मै देवाऽअधि ब्रुवन्न्यं च ब्रह्मणस्पतिः

-यजु० १७।५२

( यस्य गृहे) जिसके घर में ( हविः कुर्मः ) हम अग्निहोत्र की हवि देते हैं, ( तम् ) उसे (अग्ने) हे जगदीश्वर व यज्ञाग्नि! ( त्वं वर्धय ) आप बढ़ाओ, उन्नत करो। ( तस्मै ) उसके लिए ( देवाः अधिब्रुवन्) विद्वान् लोग उपदेश और आशीर्वाद दें, (अयंचब्रह्मणस्पतिः२ ) और यह वेदज्ञ संन्यासी भी [उसे उपदेश व आशीर्वाद दे] ।

हमने पारिवारिक यज्ञ-सत्सङ्ग की योजना बना कर उसे क्रियात्मक रूप दे दिया है। हमारे समाज के एक-सौ सदस्य हैं। प्रत्येक सदस्य के घर पर बारी-बारी से प्रतिदिन पारिवारिक सत्सङ्ग लगता है। सन्ध्या, अग्निहोत्र एवं ईश्वर- भक्ति के मधुर भजनों के उपरान्त किन्हीं विद्वान् का सारगर्भित उपदेश होता है। जिस परिवार में सत्सङ्ग का कार्यक्रम होता है, उसके गृहपति एवं घर के अन्य सदस्यों को अन्य परिवारों का अपने घर पर स्वागत करते हुए अपार हर्ष का अनुभव होता है, वे स्वयं को धन्य मानते हैं। बड़ा ही मधुर वातावरण होता है । पुरुष, माताएँ, बहनें, युवतियाँ जब भावविभोर होकर गाते हैं, ‘यज्ञरूप प्रभो हमारे भाव उज्ज्वल कीजिए’ तब अपूर्व समा बंध जाता है।

हे अग्नि! हे अग्रणी प्रभु ! हे तेजोमय जगदीश्वर ! हे यज्ञाग्नि! जिस गृहपति के घर में, जिसके परिवार में हम  सत्सङ्ग लगाते हैं, गोघृत एवं सुगन्धित हवन-सामग्री की यज्ञकुण्ड में हवि देते हैं, उसे तुम बढ़ाओ, स्वास्थ्य से बढ़ाओ, सुगन्ध से बढ़ाओ, दीर्घायुष्य से बढ़ाओ, तेजस्विती से बढ़ाओ, बल-वीर्य से बढ़ाओ, इन्द्रिय-सामर्थ्य से बढ़ाओ, मनोबल और आत्मबल से बढ़ाओ, विद्या से बढ़ाओ, सदाचार से बढ़ाओ, आनन्द से बढ़ाओ। केवल गृहपति को ही नहीं, उसके सारे परिवार को बढ़ाओ। प्रत्येक ‘स्वाहा’ की ध्वनि एवं आहुति के साथ ऊँचा उठाओ।

जिसके घर में हम पारिवारिक सत्सङ्ग लगाते हैं, उसे विद्वज्जन उपदेश दें, आशीर्वाद और आशीष दें। अपने आशीषों से उसके जीवन को सत्य, शिव, सुन्दर बना दें। उसके जीवन को अग्नि के समान पवित्र, ऊर्ध्वगामी एवं तेजोमय बना दें। उसके जीवन को अनुकरणीय एवं यशस्वी बना दें। आओ सब मिलकर आशीर्वाद दें ‘‘सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः”, “ओ३म् स्वस्ति, ओ३म् स्वस्ति, ओ३म् स्वस्ति।” सब यज्ञशेष का प्रसाद लेकर विदा हों, प्रभु का प्रसाद लेकर विदा हों, सत्सङ्गी परिवार पर अपना प्रेम बरसा कर विदा हों। ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

पादटिप्पणियाँ

१. वर्द्धया=वर्द्धय। छान्दस दीर्घ ।

२. ब्रह्मणः वेदस्य पति: रक्षक: विद्वान् संन्यासी।

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