पापों और अपराधों से छुटकारा-रामनाथ विद्यालंकार

पापों और अपराधों से  छुटकारा

 ऋषिः भरद्वाजः । देवता परमेश्वरो विद्वांश्च । छन्दः १. निवृत् साम्नी उष्णिक, २. साम्नी उष्णिक्, ३, ४, ५. प्राजापत्या उष्णिक्,। ६. निवृद् आर्षी उष्णिक्।।

१देवकृतस्यैनसोऽवयजनमसिमनुष्यकृत॑स्यैनसोऽवयजनमसिपितृतस्यैसोऽव्यज॑नमस्यात्मकृतस्यैसक्यज॑नम्स्येन्सऽएनसेल वयजनमसि। ६ यच्चाहमेनों विद्वाँश्चकार यच्चाविद्वाँस्तस्य सर्वस्यैनसोऽवयजनमसि॥

 -यजु० ८।१३

हे परमात्मन् और योगी विद्वन् ! आप ( देवकृतस्य) विद्वानों के द्वारा किये गये तथा विद्वानों के प्रति किये गये (एनसः) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( मनुष्यकृतस्य) मनुष्यों के द्वारा किये गये तथा मनुष्यों के प्रति किये गये (एनसः ) पाप या अपराध के (अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। (पितृकृतस्य ) पिताओं, पितामहों, प्रपितामहों के द्वारा किये गये तथा इनके प्रति किये गये (एनसः ) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो, (आत्मकृतस्य ) आत्मा के द्वारा तथा आत्मा के प्रति किये गये ( एनसः ) पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( एनसः एनसः ) प्रत्येक पाप या अपराध के ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो। ( यत् च अहम् एनः ) जो कोई मैंने पाप या अपराध (विद्वान्) जानकर (चकार ) किया है, ( यत् च ) और जो (अविद्वान्) अनजाने में किया है ( तस्य सर्वस्व एनसः ) उस सब पाप या अपराध के आप ( अवयजनम् असि ) दूर करनेवाले हो।

हमने मनुष्यजन्म सत्कर्म करने के लिए पाया है, पाप या  अपराध में प्रवृत्त होने के लिए नहीं। ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है। ज्यों ही हम पाप या अपराध करते हैं, त्यों ही वह उसे देख लेता है और उसका फल हमें कभी न कभी मिलकर ही रहता है। यह सब जानते हुए भी मनुष्य प्रलोभनवश पाप करता ही है। कम या अधिक प्रायः सभी लोग कभी न कभी पाप-पङ्क में फँस ही जाते हैं। देवजन अर्थात् विद्वान् । लोग भी यह जानते हुए भी कि पाप करना बुरा है, पाप के वश हो जाते हैं। ये ‘देवकृत’ पाप कहलाते हैं। परन्तु न्यायाधीश परमात्मा का जब उन्हें स्मरण होता है, तब वे शिक्षा ले लेते हैं कि आगे हम पाप नहीं करेंगे। विद्वानों के प्रति दूसरों के द्वारा किये गये पाप या अपराध भी ‘देवकृत एनस्’ में आते हैं। विद्वानों के प्रति जैसा सम्मानजनक व्यवहार करना चाहिए वैसा न करके हम उनका निरादर करते हैं या उन्हे कष्ट पहुँचाते हैं, यह विद्वानों के प्रति किया गया पाप या अपराध है। ईश्वर का स्मरण हमें इन पापों से भी बचा सकता है। परमेश्वर स्वयं भी अपनी कृपा की कोर से हमें पापमय जीवन से मुक्त रहने की प्रेरणा कर सकते हैं।

दूसरे पाप ‘मनुष्यकृत’ हैं, अर्थात् जनसामान्य द्वारा किये जानेवाले पाप और जनसामान्य के प्रति किये गये पाप । एक राहभटका राही हमसे कहीं का मार्ग पूछता है। हम उसे सही मार्ग ने बतला कर गलत मार्ग बतला देते हैं और सोचते हैं। कि जब यह गलत स्थान पर पहुँचेगा तब इसकी कैसी दुर्गति होगी। हम इसी में मजा लेते हैं। हम किसी दीन-दु:खी को सताते हैं, उसके कटे पर नमक छिड़कते हैं, और उसमें आनन्द मनाते हैं। हम किसी निरीह की हत्या कर देते हैं। प्रभु की दिव्यता का स्मरण हमें ऐसे सब पापों और अपराधों से बचा सकता है और हमें दिव्य बना सकता है।

तीसरे पाप ‘पितृकृत’ होते हैं, अर्थात् पिता, पितामह और प्रपितामह जो पाप करते हैं या इनके प्रति दूसरे लोग जो पाप करते हैं। बुजुर्ग लोगों से ही छोटे लोग शिक्षा लेते हैं। ये ही पाप करने लग जायेंगे, तो इनकी देखा-देखी छोटे लोग भी पाप करने से नहीं डरेंगे। इसी प्रकार छोटे लोगों द्वारा इनका अपमान किया जाना, इन्हें दु:खी करना आदि पाप भी इसी श्रेणी में आते हैं। परमेश्वर की मनभावनी कृपा और उसकी न्याय की तराजू का ध्यान हमें इन पापों से भी बचा सकता है।

चौथे पाप ‘आत्मकृत’ होते हैं, अर्थात् अपने द्वारा अपने प्रति या अपने द्वारा दूसरों के प्रति किये गये पाप । आत्मा का अपने प्रति पाप यह है कि आत्मा में जो असीम शक्ति छिपी है, उसे न पहचान कर उसे अल्पशक्ति, दीन-हीन समझना। ये परिगणित पाप ही नहीं, सभी प्रकार के पाप या अपराध परमेश्वर की छत्रछाया में जाने से दूर हो सकते हैं। पाप और अपराध मनुष्य जान-बूझकर भी करता है, और अनजाने में भी। इनमें से किसी भी प्रकार के पाप हों, न्यायकारी, दण्डदाता, सत्प्रेरणा के स्रोत परम प्रभु की कृपा से दूर हो सकते हैं। योगी विद्वान् जन भी अपने उपदेशों, योगप्रयोगों, जीवन ज्योतियों तथा सत्परामर्शो से पापियों को देवता बना सकते हैं, अपराधियों को पुण्यात्मा बना सकते हैं। आओ, हम भी परम प्रभु और योगी विद्वानों से जागृति प्राप्त करें।

पापों और अपराधों से  छुटकारा

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