परिपक्व वाजी की सुगन्ध -रामनाथ विद्यालंकार

परिपक्व वाजी की सुगन्ध -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः गोतमः। देवता विश्वेदेवाः । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

ये वजिने परिपश्यन्ति पक्वं यऽईमाहुः सुरभिर्निर्हरेति । ये चार्वतो मासभिक्षामुपासतऽतो तेषाभिगूर्हिर्नऽइन्वतु ।।

-यजु० २५.३५

( ये ) जो विद्वान् लोग ( वाजिनं ) बलवान् ब्रह्मचारी को ( पक्वं ) विद्या और सदाचार से परिपक्व ( परिपश्यन्ति ) देखते हैं, और ( ये ) जो ( ईम् ) इसके विषय में (आहुः ) कहते हैं कि यह ( सुरभिः ) पाण्डित्य और सदाचार से सुरभित हो गया है, हे आचार्यवर ! ( निर्हर इति ) अब इसका समावर्तन संस्कार करके समाजसेवा के लिए इसे गुरुकुल से बाहर निकालिये, ( ये च ) और जो ( अर्वतः१) क्रियाशील उस ब्रह्मचारी के (मांसभिक्षाम् उपासते ) मांसल शरीर की भिक्षा माँगते हैं, ( उतो ) अरे ! ( तेषाम् अभिगूर्ति:२) उनका उद्योग ( नः इन्वतु ) हमें भी प्राप्त हो, अर्थात् हम भी वैसा ही करें।

माता-पिता अपने बालक को ज्ञानी और सदाचारी बनाने के लिए गुरुकुल में आचार्य को सौंप देते हैं। वह आचार्य तथा अन्य गुरुजनों के सान्निध्य में रहता हुआ विद्वान् और आचारवान् बन जाता है। जब वह आचार्य के पास आता है, तब कुम्हार के कच्चे घड़े के समान ज्ञान और आचार में कच्ची होता है, गुरुजनों की शिक्षारूप अग्नि से आबे की अग्नि से घड़े के समान परिपक्व हो जाता है। तब उससे पाण्डित्य और सदाचार को सुगन्ध उठने लगती है।

जब ब्रह्मचारी के माता-पिता आदि सम्बन्धी जन तथा समाज के विद्वद्वर्ग यह देखते हैं ब्रह्मचारी गुरुकुल में पढ़कर तथा व्रतपालन करके विद्वान्, व्रतनिष्ठ तथा सदाचारी हो गया है, कच्चे से परिपक्व हो गया है और इसके अन्दर से ज्ञान विज्ञान तथा सत्यनिष्ठा का सौरभ उठ रहा है, तब वे आचार्य से प्रार्थना करते हैं कि अब आप इसका समावर्तन संस्कार करके इसे समाजसेवा के लिए गुरकुल से बाहर भेजिए। वे यह भी देखते हैं कि जो बालक गुरुकुल-प्रवेश के समय गुमसुम और उदासीन लगता था, वह अब चुस्त और क्रियाशील हो गया है, तब उनकी और भी अधिक इच्छा होती है कि इसका मांसल शरीर जनता की सेवा में लगना चाहिए। वे आचार्य से इसके मांसल शरीर की समाज के लिए भिक्षा माँगते हैं।

अन्तिम चरण में कहा गया है कि जो लोग आचार्य से वाजी तथा ज्ञान एवं सद्वृत्त में परिपक्व ब्रह्मचारी को गुरुकुल से बाहर भेजने की प्रार्थना करते हैं, उनका यह उद्यम हमें भी प्राप्त हों, अर्थात् हम भी उद्यमी होकर आचार्य से वैसी प्रार्थना करें। इस प्रकार आचार्य हम सबकी इच्छा का आदर करके ब्रह्मचारी को समाज के अर्पण करेंगे, जिससे सारा समाज कृतार्थ होगा, समाज से कुरीतियों का उन्मूलन होगा, ज्ञानसलिल की धारा बहेगी, सदाचार चिरंजीवी होगा, कदाचार तिरस्कृत होगा। ऐसे अनेक ब्रह्मचारी गुरुकुल से बाहर आयेंगे और विभिन्न प्रदेशों को अपना कार्यक्षेत्र बना कर ज्ञान प्रसार करेंगे, तो राष्ट्र उन्नति के शिखर पर आसीन होकर गौरवान्वित होगा।

पादटिप्पणियाँ

१. ऋ गतिप्रापणयोः । ऋच्छति क्रियाशीलो भवतीति अर्वान्, तस्य अर्वतः ।

२. अभिगुरी उद्यमने, क्तिन् ।

३. इन्वतु प्राप्नोतु । इन्वति गत्यर्थक, निघं० २.१४

४. प्रस्तुत मन्त्र का अर्थ उवट एवं महीधर ने अश्वमेध के अश्व को काट कर पकाने के पक्ष में किया है।

परिपक्व वाजी की सुगन्ध -रामनाथ विद्यालंकार 

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