पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वत्सप्री: । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

अग्नेऽअङ्गिरः शतं ते सन्त्ववृतेः सहस्त्रे तऽउपवृतः अध पोषस्य पोषे पुनर्नो नष्टमाकृधि पुनर्नो रयिमाकृधि॥

-यजु० १२।८

हे ( अङ्गिरः अग्ने ) विद्यारसयुक्त अध्यापक! ( शतं ) एक-सौ ( ते सन्तु ) तेरी हों (आवृतः ) आवृत्तियाँ। ( सहस्त्रं ) एक सहस्र हों ( ते ) तेरी ( उपावृतः ) उपावृत्तियाँ। यदि पाठ विस्मृत ही हो गया है, आवृत्ति से काम नहीं चलता, तब (नः ) हमारे ( नष्टं ) नष्ट या विस्मृत पाठ को ( पोषस्य पोषेण ) परिपुष्ट अध्यापक के पोषण से (पुनःआकृधि ) पुनः मन में बैठा दो। ( पुनः ) फिर ( नः ) हमारी ( रयिं ) विद्या-लक्ष्मी को ( आकृधि) उत्पन्न कर दो।।

शिक्षणालयों में विद्या ग्रहण करनेवाले विद्यार्थियों का योग्यता के कई कारण होते हैं, जिनमें अध्यापक की अध्यापन रीति एक प्रमुख कारण है। एक शिक्षाशास्त्री का कथन है कि * आचार्य समाहित होकर छात्रों को ऐसी रीति से विद्या और सुशिक्षा करे कि जिससे उनके आत्मा के भीतर सुनिश्चित अर्थ होकर उत्साह ही बढ़ता जाये। दृष्टान्त, हस्तक्रिया, यन्त्र, कलाकौशल, विचार आदि से विद्यार्थियों के आत्मा में पदार्थ इस प्रकार साक्षात् करावे कि एक के जानने से हजारों पदार्थ यथावत् जानते जायें ।

प्रस्तुत मन्त्र में अध्यापक को ‘अग्नि’ कहा गया है। अग्नि शब्द उणादि कोष में गत्यर्थक ‘अगि’ धातु से ‘नि’ प्रत्यय करके निष्पन्न किया गया है। इससे अध्यापक के क्रियाशीलता, तत्परता, ज्ञानप्रकाशयुक्तता, अध्यापन-कुशलता  आदि गुण सूचित होते हैं। यहाँ अध्यापक को एक विशेषण ‘अङ्गिरस्’ है। उणादि में अङ्ग से असि प्रत्यय तथा इरुङ् का आगम करके यह शब्द निपातित किया गया है, जिससे अध्यापक का विद्याङ्गसमय होना सूचित होता है। तात्पर्य यह है कि अध्यापक को अखिल वेदवेदाङ्गों का तथा ज्ञान-विज्ञान के भण्डार का स्वामी होना चाहिए। मन्त्र में अध्यापक द्वारा शिष्यों को पढ़ाये हुए पाठ की आवृत्तियाँ और उपावृत्तियाँ कराने पर विशेष बल दिया गया है। वह शिष्यों को एक-सौ आवृत्तियाँ तथा एक-सहस्र उपावृत्तियाँ कराये। आवृत्ति से तात्पर्य है, उस पाठ की अक्षरशः पूर्ण आवृत्ति अर्थात् उस पाठ को पूरा दोहराना। उपावृत्ति का अभिप्राय है, उस पाठ पर सामान्य दृष्टि डालना। प्रतिदिन एक आवृत्ति की जाए, तौ एक-सौ आवृत्तियों में तीन मास दस दिन लगेंगे। एक सहस्र उपावृत्तियों में २ वर्ष ९ मास १० दिन। यह अनुभव से देखा गया है कि किन्हीं श्लोकों, मन्त्रों आदियों का प्रतिदिन पाठमात्र कर लेने पर, स्मरण करलेने के लिए मस्तिष्क पर कोई बल न देने पर भी वे तीन-चार मास में स्मरण या कण्ठस्थ हो जाते हैं। उसके बाद अक्षरशः न देख कर सामान्य दृष्टि-निक्षेप से ही काम चल जाता है।

उत्तरार्ध में मन्त्र कहता है कि यदि कोई पाठ पूर्णतः लुप्त (नष्ट) हो जाए, उसके सब ग्रन्थ जलविप्लव या अग्नि आदि से विनष्ट हो जाएँ तो भी सुयोग्य विद्वान् पुनः उस विद्या का अनुसन्धान या आविष्कार कर सकते हैं। इस प्रकार खोई हुई लक्ष्मी को पुनः प्राप्त करा सकते हैं। यहाँ यदि ‘नष्ट’ का अर्थ पूर्णतः विस्मृत लें, तो कुशल अध्यापक पुनः उसे शिष्य के मस्तिष्क में बैठा सकता है, यह भाव लेना चाहिए।

पादटिप्पणियाँ

१. स्वामी दयानन्द सरस्वती, ऋ० भा० १.४.४, भावार्थ ।।

२. अङ्गेर्नलोपश्च उ० ४.५१, अगि- नि, अङ्ग नि, अग्-नि=अग्नि।

३. अङ्ग- असि प्रत्यय, इरुङ्-इर् का आगम। अङ्गिरा: उ० ४.२३७।

४. अङ्गिराः विद्यारसयुक्तः-द० । अङ्ग-रस=अङ्गिरस्।

पठित पाठ की आवृत्तियाँ उपावृत्तियाँ-रामनाथ विद्यालंकार

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