नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार

नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वरुणः । देवता क्षत्रपति: । छन्दः आर्षी पङ्किः।

सोमस्य त्वा द्युम्नेनाभिषिञ्चाम्यग्नेजसा सूर्यस्य वर्चसेन्द्र स्येन्द्रियेण क्षत्राणी क्षत्रपतिरेध्यति दिद्यून् पहि ॥

-यजु० १० । १७

हे नवनिर्वाचित राजन् ! ( सोमस्य द्युम्नेन ) सोम के यश से ( त्वी अभिषिञ्चामि ) तुझे अभिषिक्त करता हूँ, ( अग्नेः भ्राजसा ) अग्नि के तेज से, ( सूर्यस्य वर्चसा ) सूर्य के वर्चस् से, (इन्द्रस्य इन्द्रियेण ) इन्द्र के इन्द्रत्व से । तू ( क्षत्राणां क्षत्रपतिः) क्षात्रकुलोत्पन्नों का क्षत्रपति ( एधि) हो। ( दिद्युन् अति ) मारक शास्त्रास्त्रों को विफल करके, तू ( पाहि ) राष्ट्र की रक्षा कर।।

हे क्षत्रियश्रेष्ठ! आप मतदाताओं द्वारा बहुसम्मति से राष्ट्र के राजा निर्वाचित हुए हैं। इस अवसर पर हम राष्ट्रवासियों की ओर से हर्ष प्रकट करते हैं और आपको वधाई देते हैं। यह हम राष्ट्र का सौभाग्य मानते हैं कि आप जैसे सुयोग्य व्यक्ति के पक्ष में जनता ने मतदान किया है। अब विभिन्न स्थानों के जलों से आपका अभिषेक हो रहा है। प्रजा की ओर से आपका अभिषेक करने के लिए नियुक्त मैं पुरोहित आपको ‘सोम’ के यश से अभिषिक्त करता हूँ। सोम चन्द्रमा का और ओषधियों के राजा का नाम है। चन्द्रमा अपनी चाँदनी के यश से यशस्वी बना हुआ है। वह चान्द्र तिथियों, चान्द्र मासों तथा चान्द्र वर्षों का भी निर्माण करता है। आपका यश भी चाँदनी जैसा हो, आप पूनम के चाँद बनकर राष्ट्रगगन में चमकें। ‘सोम’ ओषधियों का राजा एक पौधा भी होता है, जिसका रस स्फूर्ति, उत्साह, मनीषा, वीरता आदि को बढ़ाता है, तथा जो रोगियों को नीरोग, निराशों की आशावादी और मृततुल्यों  को सजीव कर सकता है। उस जैसा यश भी आप प्राप्त करें। ‘अग्नि’ के तेज से आपको अभिषिक्त करता हूँ। यज्ञकुण्ड में अग्नि की ऊर्ध्वगामिनी ज्वालाएँ यजमान को तेजस्वी होकर ऊध्र्वारोहण करने का सन्देश देती हैं। अग्नि का वह यश भी आपको प्राप्त हो। फिर मैं सूर्य के वर्चस् से आपको अभिषिक्त करता हूँ। सूर्य का वर्चस् समस्त सौर मण्डल को प्राण प्रदान करता है, अपने आकर्षण की डोर से सबको अपने साथ बाँध कर अपने चारों ओर अपनी परिक्रमा करवाता है, प्रकाश देता है, अपने ताप से ओषधि-वनस्पतियों को उगाता, बढ़ाता, पुष्पित-फलित तथा परिपक्व करता है। आप अपने राष्ट्र की फुलवारी को सींचिए, सप्राण कीजिए, बढाइए, विकसित कीजिए, फलवती कीजिए। मैं आपको इन्द्र के इन्द्रत्व से अभिषिक्त करता हूँ। वैदिक इन्द्र के कर्म हैं वर्षा करना, वृत्रादि का वध करना तथा जो भी वीरता के कार्य हैं, उन्हें करना। आप भी प्रजा पर सुखसमृद्धि की वर्षा कीजिए, वैरियों का संहार कीजिए और अन्य भी वीरता के सेवाकार्य कीजिए। | हे राजन्! आप सच्चे अर्थों में क्षत्रपति बनिए, क्षात्र तेज को चारों ओर बखेरिए, चोरों से, आघातों से, शत्रु के आक्रमणों से राष्ट्र की रक्षा कीजिए। शत्रुओं की वाणवर्षा, बम-गोलों की वर्षा, तोप-गोलों की वर्षा विफल करके राष्ट्र की रक्षा कीजिए। हम आपका जयकार करते हैं, आपके सहयोगियों का जयकार करते हैं, आपके अभिषेक का जयकार करते हैं और आपसे आशा करते हैं कि आप अपने कार्यकाल में राष्ट्र को ऊँचा उठायेंगे।

पादटिप्पणियाँ

१. द्युम्नं द्योततेः, यशो वा अन्नं वा। निरु० ५.३४

२. दो अवखण्डने। द्यन्ति खण्डयन्ति ये ते दिद्यवो बाणाः। ‘इषवो वै दिद्यवः इषुवधमेवैनमेतदतिनयति’ श० ५.४.२.९ इति श्रुतेः । तानतक्रम्यशत्रुप्रयुक्तान् इष्वादीन् अपसार्य इमं यजमानं हे सोम पाहि पालय–म० |

३. अथास्य कर्म रसानुप्रदानं वृत्रवधः या च का च बलकृति: इन्द्रकमेवतत् । निरु० ७.१०

नवनिर्वाचित राजा का अभिषेक -रामनाथ विद्यालंकार 

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