धन कमायें, दान करें -रामनाथ विद्यालंकार

धन कमायें, दान करें -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः महीयवः । देवता ईश्वरः । छन्दः विराड् आर्षी गायत्री।

एना विश्वान्युर्यऽआ द्युम्ननि मानुषाणाम्। सिषासन्तो वनामहे

-यजु० २६.१८

( अर्यः) ईश्वर ने ( मानुषाणां ) मनुष्यों के ( एना विश्वानि द्युम्नानि ) इन सब धनों को ( आ ) प्राप्त कराया है। हम उन्हें  (सिषासन्तः१)  दान करना चाहते हुए (वनामहे ) सेवन करें।

‘अर्य’ शब्द के दो अर्थ होते हैं, ईश्वर (स्वामी) और वैश्य । ईश्वर अर्थ में यह अन्तोदात्त होता है और वैश्य अर्थ में आद्युदात्त ।’ यहाँ अन्तोदात्त होने से ईश्वर अर्थ है। ‘द्युम्न’ शब्द निघण्टु में धनवाचक शब्दों में पठित है। दीप्त्यर्थक द्युत धातु से इसकी निष्पत्ति होती है। जगत् में धन भरे पड़े हैं। सोना, चाँदी, हीरे, गन्धक, कोयले, नमक आदि की खाने हैं, मिट्टी के तेल के कूप हैं, समुद्र में मोती बिखरे हुए हैं। धरती अन्न उपजाती है। बाग-बगीचे फल देते हैं। रेशम के कीट रेशम देते हैं, जिनसे रेशमी वस्त्र बनते हैं। कपास के पौधे कपास देते हैं, जिनकी रुई से वस्त्र बनते हैं। जङ्गल में जङ्गली फल-फूल-कन्द नि:शुल्क मिल जाते हैं। ईश्वर द्वारा बिना मूल्य के दिये हुए इन सब धनों पर मनुष्य ने अधिकार कर लिया है। अधिकारी मनुष्य इन्हें मोल बेचते हैं। किन्तु हैं वे सब धन परमात्मप्रदत्त ही। कुछ मूल्य चुकानी पड़ जाता है, तो भी मनुष्य को ये सब धन स्वयं बनाने नहीं पड़ते हैं। हैं। ईश्वर के बनाये हुए ही। ईश्वर द्वारा दिये हुए इन धनों का हम उपभोग करते हैं, सेवन करते हैं। मन्त्र हमारा ध्यान इस यजुर्वेद– ज्योति ओर आकृष्ट कर रहा है कि हम इनका सेवन तो करें, किन्तु जिनके पास ये धन नहीं हैं, उन्हें हम इनका दान भी करें। हम पूंजीवादी प्रवृत्ति के होकर इनका अपने ही पास संग्रह न करते चलें, हम अपरिग्रही बनें। अपने पास उतना ही रखें, जितने की हमें आवश्यकता है, उससे अधिक धन, जो हमारे पास है, उसे हम उन्हें दान कर दें, जिन्हें उसकी आवश्यकता है। समाज में कुछ लोग अत्यधिक धनी हों और कुछ अत्यधिक निर्धन हों, यह वैदिक विभाजन नहीं है। वैदिक विभाजन यह है कि सबके पास धन पहुँचना चाहिए। सबको खाने-पीने पहनने का अधिकार है। उस अधिकार को जहाँ छीना जाता है, वहाँ सीमा से अधिक वैषम्य होता है। कुछ लोगों के कोठे भरे रहते हैं और कुछ लोग अन्न के दाने और वस्त्र के टुकड़े के लिए तरसते हैं, तड़पते हैं। दान की भावना इस वैषम्य का सुन्दर इलाज है। ईश्वर का दिया हुआ धन सब भाई-बहिनों में बाँटकर भोगें, यही वैदिक मन्देश है।

पादटिप्पणियाँ

१. सिषासन्तः, षषु दाने, सनितुं दातुमिच्छन्तः । सन्, शतृ ।

२. वनामहे संभुज्महे, वन संभक्तिशब्दयोः भ्वादिः ।।

३. अर्यः स्वामिवैश्ययो: पा० ३.१.१०३। ऋ गतौ अस्माद् ण्यति प्राप्तेस्वामिवैश्ययो: अभिधेययोः यत् प्रत्ययो निपात्यते । अर्य: स्वामी, अर्यो वैश्यः। ‘यतो 5 नाव:’ पा० ६.१.२१३ इत्याद्युदात्तत्वे प्राप्ते ‘स्वामिन्यन्तोदात्तं च वक्तव्यम् ।’ स्वामिवैश्ययोरिति किम् ? आर्यो

ब्राह्मण:-काशिकावृत्ति।

४. निघं० २.१०।

५. द्युम्नं द्योतते:, निरु० ५.३३

धन कमायें, दान करें -रामनाथ विद्यालंकार

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