ऋषिः वैखानसः । देवता पितरः । छन्दः स्वराड् आर्षी पङ्किः।
द्वे सृतीऽअंशृणवं पितृणामहं देवानामुत मर्त्यनाम्।। ताभ्यामिदं विश्वमेज़त्समेति यदन्तरा पितरं मातरं च ॥
-यजु० १९४७
( पितृणां ) पितृजनों के, ( देवानां ) विद्वानों के ( उत ) और (मर्यानां ) मनुष्यों के (द्वेसृती ) दो मार्ग ( अशृणवम् ) मैंने सुने हैं। ( ताभ्यां ) उन दो मार्गों से ( एजद् विश्वं ) क्रियाशील यह सब जगत् ( समेति ) सञ्चार करता है ( यत् पितरं मातरं च अन्तरा) जो पिता और माता के अर्थात् द्यौ और पृथिवी के मध्य में है।
मनुष्य-जन्म प्राप्त करके संसार में जो जैसे कर्म करते हैं, उन्हें तदनुसार गति प्राप्त होती है। मनुष्यों की तीन श्रेणियाँ हैं । कुछ लोग ‘पितृजन’ हैं, जिनमें पिता, पितामह, प्रपितामह आते हैं। कुछ ‘देवजन’ हैं, जिनमें विद्वान् लोग आते हैं। कुछ ‘मर्त्य’ हैं, जिनमें साधारण मनुष्य आते हैं। दो मार्ग हैं, एक ‘पितृयाण’, दूसरा ‘देवयान’ । उक्त तीनों प्रकार के मनुष्य अपने जीवनयापन के लिए दोनों में से कोई भी मार्ग चुन सकते हैं । ‘पितृयाण’ है माता-पिता से जन्म प्राप्त करके संसार में विषयभोग का सुख प्राप्त करते हुए जीवन व्यतीत करना । जो इस मार्ग को चुनते हैं वे यदि पशु-पक्षी-कीट-पतङ्ग-सर्प आदि की योनि में जन्म न पाकर कर्मानुसार पुनः मनुष्यजन्म पाते हैं, तो पुनः विषयभोग के सुख में ही लिप्त रहते हैं। इस मार्ग को पितृजन भी चुन सकते हैं, विद्वज्जन भी चुन सकते हैं और साधारण मनुष्य भी चुन सकते हैं। वे पुनः-पुनः किसी योनि में जन्म पाते रहेंगे और जीवन-मरण के चक्र से कभी छूटेंगे नहीं। पुनः पुनः जन्म पाने में सुख और दुःख दोनों ही उन्हें प्राप्त होते हैं। कभी समृद्धि पाकर और अनुकूल वातावरण पाकर सुखी होते हैं, तो कभी दरिद्रता से और प्रतिकूल वातावरण से, प्रेमी जनों के कष्ट, मृत्यु आदि से दुःखी भी होते हैं। सुख की अपेक्षा दु:ख ही उन्हें अधिक भोगना पड़ता है। कभी व्याधिजन्य दु:ख है, कभी अपने बहुमूल्य धन-धान्य की चोरी का दुख है, कभी डाकुओं द्वारा लूटे जाने का दु:ख है, कभी स्त्री-पुत्रादि के बिछोह का दु:ख है। वे सुख-साधन जुटाते हैं, किन्तु कभी-कभी सुख-साधन भी दु:ख के कारण बन जाते हैं। जैसे प्रासाद बनवाया सुख के लिए, किन्तु वर्षा या भूकम्प से छत कच्ची होकर गिर जाने से परिवार के लोग यमलोक चले गये, तो सुखसाधन भी दु:ख का कारण बन गया। इसी प्रकार सिंह-व्याघ्र आदि द्वारा हानि पहुँचाये जाने का भी दु:ख होता है। अनावृष्टि, अतिवृष्टि भूकम्प, नदी की बाढ़ आदि से आक्रान्त होकर भी मनुष्य दु:ख पाते हैं। विषयभोग से जो सुख प्राप्त होता है, वह भी रोग आदि हो जाने से दु:ख का कारण बन जाता है। इस प्रकार पितृयाण मार्ग का अवलम्बन करनेवाले लोग चाह सुख की ही करते हैं, किन्तु वस्तुतः उन्हें भोगने दु:ख ही अधिक पड़ते हैं।
दूसरा मार्ग है ‘देवयान’। इस मार्ग को भी पूर्वोक्त तीनों प्रकार के लोग चुन सकते हैं, वे विषयभोग की लालसा को छोड़कर सदाचारपूर्वक अपना धार्मिक जीवन व्यतीत करें, अन्य लोगों के साथ मैत्री का व्यवहार करें, व्रत-उपवास आदि करें, योगाभ्यास, ध्यान और साधना द्वारा परमेश्वर में मन को लगायें, निष्काम कर्म करें, अहिंसा-सत्य-अस्तेय आदि यमों का और शौच-सन्तोष-तप आदि नियमों का पालन करें, धारणा-ध्यान-समाधि में मन लगायें, तो वे जन्म-मरण के बन्धन से छूट कर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। अतः मन्त्र में कहा गया है कि जो भी पिता-माता अर्थात् द्यावापृथिवी के मध्य में स्थित सब जगत् है, वह इन्हीं मार्गों से गति करता है और उसका फल प्राप्त करता है।
अतः आओ, हम भी अपने विवेक का प्रयोग करें और इन मागों में से जो श्रेयस्कर है, उसी को चुन कर तदनुसारअपने जीवन को चलायें।
पाद-टिप्पणी
१. द्यौः पिता पृथिवी माता। ‘‘असौ वै पिता इयं माता” श० १२.८.१.२१
दो मार्ग -रामनाथ विद्यालंकार