देहधारक चौतीस तत्व -रामनाथ विद्यालंकार

देहधारक चौतीस तत्व -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वसिष्ठः । देवता विश्वेदेवाः । छन्दः भुरिक् आर्षी त्रिष्टुप् ।

चतुस्त्रिशत्तन्तवो ये वितनिरे यऽइमं यज्ञस्वधया दर्दन्ते। तेषां छिन्नसम्वेतद्दधामि स्वाहा घुर्मोऽअप्येतु देवान्

-यजु० ८।६१ |

( चतुस्त्रिंशत् ) चौंतीस (तन्तवः) सूत्र ( ये वितत्निरे ) जो देहरूप ताने को तन रहे हैं, (ये ) जो ( इमं यज्ञं ) इस जीवन-यज्ञ को ( स्वधया) आत्मधारणशक्ति से ( ददन्ते ) धारण कर रहे हैं, ( तेषां छिन्नं ) उनके छिन्न हुए अंश को ( एतत् सं दधामि ) यह संधान कर रहा हूँ, पूर्ण कर रहा हूँ। ( स्वाहा ) शरीर में यथोचित ओषधि की आहुति से स्वस्थ किया हुआ ( घर्म:२ ) जीवन-यज्ञ ( देवान्) दिव्य गुणों को ( अप्येतु) प्राप्त हो।

यों तो प्रत्येक पदार्थ पञ्च तत्त्वों के विभिन्न अनुपातों के मेल से बना है, तो भी देहधारक तत्त्व चौंतीस माने जा सकते हैं। पञ्चभूत, १० इन्द्रियाँ, १० प्राण, अहङ्कारचतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार), ४ धातुएँ (अस्थि, मांस, मज्जा, रक्त), १ आत्मा। इनमें से किसी की भी न्यूनता या दुर्बलता होने पर शरीर न्यून या दुर्बल हो जाता है। उदाहरणार्थ इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि या आत्मा के दुर्बल हो जाने से शरीर अस्वस्थ या दयनीय लगने लगता है। आँख की दूरदृष्टि या समीपदृष्टि यदि अल्प हो जाती है, तो उस कमी को दूर करने के लिए हम उपनेत्र (ऐनक) का प्रयोग करते हैं। कभी-कभी आँख में मोतिया उतर आता है, तब शल्यक्रिया करानी पड़ती है और कृत्रिम लैन्स डाला जाता है। शल्यक्रिया यदि सफल न हो, तो एक आँख या दोनों आँखें सदा के लिए बेकार हो जाती हैं। तब अन्धा हो जाने से कितनी बड़ी कमी शरीर में अनुभव होने लगती है। इसी प्रकार श्रवणशक्ति कम हो जाने से या सर्वथा नष्ट हो जाने से भी शरीर अल्पसामर्थ्य हो जाता है। प्राण, अपान आदि के ठीक काम न करने से भी पाचन संस्थान, रक्त-संस्थान, ज्ञानतन्तु-संस्थान आदि अपना कार्य ठीक प्रकार से नहीं कर पाते । मनोबल या आत्मबल न्यून हो जाए, तब तो मनुष्य नकारे के तुल्य हो जाता है, क्योंकि कठिन कार्य करने की या सङ्कटों से मुकाबला करने की शक्ति उसके अन्दर नहीं रहती। उक्त सभी चौंतीसों तत्त्व स्वात्मधारण शक्ति से हमारे जीवन-यज्ञ को धृत या सञ्चालित कर रहे हैं। यदि इनमें से किसी का भी अंश न्यून हो जाता है, तो यथोचित चिकित्सा द्वारा या शरीर में ओषधि की आहुति द्वारा मैं उसे पूर्ण कर लेता हूँ। परन्तु कमी को पूर्ण करके स्वस्थ किया हुआ भी जीवन-यज्ञ किसी काम का नहीं है, यदि उसमें सद्गुणों का समावेश न हो। अतः शरीरस्थ आत्मा में मैं सत्य, अहिंसा, न्याय, दयालुता, सेवाभाव आदि सद्गुणों का समावेश भी करता हूँ। तब स्वस्थ और सर्वगुणसम्पन्न मेरा जीवन उन्नति और परोपकार में लगकर यशस्वी हो उठता है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. ददन्ते धारयन्ति, दद दानधारणयो:-म० ।।

२. घर्म:=यज्ञ, निघं० ३.१७

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