दीक्षा का फल-रामनाथ विद्यालंकार
ऋषि: हैमवर्चिः । देवता यज्ञ: । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।
व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमप्यते ॥
-यजु० १९ । ३०
( व्रतेन ) सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थाश्रमप्रवेश आदि का व्रत लेकर (दीक्षाम्आप्नोति ) दीक्षा प्राप्त करता है। ( दीक्षया ) दीक्षा लेकर ( आप्नोति ) प्राप्त करता है। ( दक्षिणाम् ) दक्षिणा को अर्थात् दीक्षा के फल को। ( दक्षिणा ) दक्षिणा से अर्थात् दीक्षा के फल से ( श्रद्धाम्आप्नोति ) श्रद्धा को प्राप्त करता है, अर्थात् उसे दीक्षा आदि सत्कर्मों में श्रद्धा हो जाती है। ( श्रद्धया) श्रद्धा से ( सत्यम् ) सत्य (आप्यते) प्राप्त होता है।
मनुष्य जब कोई व्रत लेता है, तब पुरोहित या गुरु से उसकी दीक्षा लेता है । दीक्षा-यज्ञ में वह सत्पुरुषों तथा माताओं को भी निमन्त्रित करता है, जिससे वे भी जानें कि उसने यह व्रत लिया है और यदि वह व्रत से डिगने लगे, तो उसे सचेत कर दें। बहुतों के सामने व्रत की दीक्षा लेने में उसे व्रतपालन में सहायता मिलती है। दीक्षा लेने से दीक्षा ग्रहण करनेवाले को दक्षिणा प्राप्त होती है, अर्थात् व्रतग्रहण का फल या लाभ मिलने लगता है। जैसे किसी ने ब्रह्मचर्य का व्रत ग्रहण किया, ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली, तो कुछ समय ब्रह्मचर्य के पालन से उसे उसका लाभ प्राप्त होने लगा। उसके चेहरे पर कान्ति आ गयी, शरीर में बल आ गया, मन शिवसङ्कल्पयुक्त हो गया, आत्मबल भी प्राप्त हुआ। यह उसे दीक्षा की दक्षिणा मिली, अर्थात् दीक्षा का फल प्राप्त हुआ। दक्षिणा से श्रद्धा प्राप्त होती है, अर्थात् यह विश्वास जम जाता है कि यह कार्य बहुत अच्छा है। यथा ब्रह्मचर्यपालन से दक्षिणी (लाभ-प्राप्ति) मिली, तो ब्रह्मचर्य के प्रति श्रद्धा जमी कि यह कार्य करना चाहिए। श्रद्धा से वह सत्य हृदयङ्गम हो जाता है। यथा ब्रह्मचर्य में श्रद्धा हुई, तो ब्रह्मचर्यरूप सत्य हृदय में घर कर गया। अब व्रतग्रहणकर्ता कभी ब्रह्मचर्य से विचलित नहीं होगा।
मन्त्रोक्त क्रम प्रत्येक व्रतग्रहण पर घटित हो सकता है। कोई प्रतिदिन प्राणायाम और योगासन करने का व्रत लेता है, इस व्रत की दीक्षा लेता है। प्रतिदिन व्रत पालन करने से उसे दक्षिणी प्राप्त होती है, अर्थात् इसका लाभ प्रतीत होने लगता है। लाभ प्रतीत होने से प्राणायाम और योगासन में श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा से प्राणायाम और योगासन रूप सत्य आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाता है। तब वह अन्यों को भी इसका लाभ बताने लगता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि में यह मन्त्र वानप्रस्थ आश्रम की दीक्षा के प्रमाणरूप में दिया है। उनके अनुसार जब मनष्य ब्रह्मचर्यादि तथा सत्यभाषणादि व्रत अर्थात् नियम धारण करता है, तब उस व्रत से दीक्षा को प्राप्त होता है। दीक्षा से दक्षिणा को अर्थात् सत्कारपूर्वक धनादि को प्राप्त होता है। उस सत्कार से श्रद्धा को अर्थात् सत्यधारण में प्रीति को प्राप्त होता है और श्रद्धा से सत्य विज्ञान या सत्य पदार्थ मनुष्य को प्राप्त होता है। इसलिए श्रद्धापूर्वक ब्रह्मचर्य और गृहाश्रम का अनुष्ठान करके वानप्रस्थ आश्रम अवश्य करना चाहिए।” वैसे प्रत्येक व्रतग्रहण या दीक्षा के लिए यह मन्त्र लागू होता है।
पाद-टिप्पणी
१. दक्षिणा=दक्षिणया। दक्षिणा–आ, पूर्वसवर्णदीर्घ ।
दीक्षा का फल-रामनाथ विद्यालंकार