दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः विधृतिः। देवता यज्ञः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।
देवहूर्यज्ञऽआ च वक्षत्सुम्नहूर्यज्ञऽआ चं वक्षत्।। यक्षदग्निर्देवो देवाँ२।।ऽआ च वक्षत्॥
-यजु० १७।६२
( देवहूः ) दिव्य गुणों को बुलानेवाला है ( यज्ञः ) त्यागमय जीवन, (आवक्षत् च ) वह हमें दिव्य गुण भी प्राप्त कराये। ( सुम्नहूः) सुख को बुलानेवाला है ( यज्ञः ) त्यागमय जीवन, ( आवक्षत् च ) वह हमें सुख भी प्राप्त कराये। ( यक्षत्) प्रशंसा करे (अग्निःदेवः) प्रकाशमय परमेश्वर ( देवान्) दिव्य कर्मों की ( आवक्षत् च) और उन्हें प्राप्त भी कराये। |
सुखी जीवन के लिए समस्त सुख-सुविधाओं को जुटाना मानव के लिए अभीष्ट हो सकता है, परन्तु स्वेच्छा से त्यागमय जीवन व्यतीत करना उससे भी अच्छा है। एक धूनी रमाये साधु ने किसी नगर से बाहर एक वृक्ष के नीचे आसन जमाया। नागरिक लोग श्रद्धावश तरह-तरह की भेंटें उसके आगे रख जाते। वह सब सामान गरीबों को बाँट देता था। एक दिन एक सेठ थालों में आभूषण, रेशमी वस्त्र, मिष्टान्न, फल आदि राजसी सामान लेकर आये। वह सामान भी उसने जरूरत मन्दों को बाँट दिया। सेठ ने कुछ उपदेश देने की अभ्यर्थना की तो साधु बोला-जैसे मैं बाँटता हूँ, वैसे ही तुम भी बाँटो। सेठ ने कहा-महाराज, आप तो दूसरों का दिया बाँट रहे हैं, इसलिए आपको बाँटने में कुछ दर्द नहीं है। हमारी तो अपनी कमाई है। साधु बोला-क्यों गर्व करते हो! तुम्हारी धन दौलत भी भगवान् की दी हुई है। जितना बाँटोगे, उतनी ही बढ़ेगी। गरीब से जो प्यार करता है, उससे भगवान् प्यार करते हैं।
त्यागमय जीवन ‘देवहू:’ है, दिव्य गुणों को बुला कर लानेवाला है। त्याग का गुण मनुष्य के अन्दर आते ही अहिंसी, सत्य, अस्तेय, श्रद्धा, न्याय, दया आदि सब गुण स्वयं उसके पास दौड़े चले आते हैं। मनुष्य असत्यभाषण, चोरी आदि करता है किसी स्वार्थ के लिए। जब उसका जीवन ही परार्थ हो जाता है, तब हिंसा आदि दुर्गुण उसके पास भला क्यों फटकेंगे। त्यागमय जीवन ‘सुम्नहू:’ है, सुख को बुला कर लानेवाला है। त्याग में जो सुख अनुभव होता है, उसे त्यागी ही जानता है। कोई धनी-मानी व्यक्ति किसी सत्कार्य के लिए एक लाख का दान करके लौट रहा था। चेहरे पर प्रसन्नता की रौनक थी। किसी ने कहा-तू तो ऐसा खुश दीख रहा है, जैसे करोड़पति हो गया हो। |
दिव्य गुणों के साथ दिव्य कर्म भी आने चाहिएँ। त्यागमय जीवन दिव्य कर्मों की ओर भी मनुष्य को अग्रसर करता है। हम प्रकाशमय अग्निप्रभु से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें दिव्य कर्मों का धनी भी बनाये।
आओ, हम त्यागरूप यज्ञ को अपना कर दिव्यगुणों के राजा, सुख के स्वामी और दिव्य कर्मों के धुरन्धर बने ।
पाद–टिप्पणियाँ
१. देवान् दिव्यगुणान् आह्वयतीति देवहू: ।
२. आ-वह प्राणणे, लेट् । आवक्षत्=आ वहतु।
३. सुम्न-सुख, निघं० ३.६ । सुम्नानि सुखानि आह्वयतीति सुम्नहू:।।
४. यक्षत्, यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु, लेट् । यजतु पूजयतु प्रशंसतु ।
दिव्य गुण-कर्मों और सुखों का प्रापक त्यागमय जीवन -रामनाथ विद्यालंकार