तेरे सब अङ्गों की शक्ति बढ़े
ऋषिः मेधातिथि: । देवता विद्वांसः । छन्दः क. भुरिग् आर्ची त्रिष्टुप्, | र. आर्षी पङ्किः
मनस्तऽआप्यायतां वाक् तऽआप्यायतां प्राणस्तऽआप्यायत चक्षुस्तऽआप्यायताछ श्रोत्रे तऽआप्यायताम्। ‘यत्ते क्रूरं यदास्थितं तत्तूऽआप्यायतां निष्ट्यायतां तत्ते शुध्यतु शमहोभ्यः ।ओषधे त्रायस्व स्वर्धिते मैनहिसीः
-यजु० ६ । १५
हे शिष्य ! मेरी शिक्षा से ( ते मनः आप्यायाम् ) तेरे मन की शक्ति बढ़े, (तेवाक्आप्यायताम् ) तेरी वाणी की शक्ति बढे, ( ते प्राणः आप्यायताम् ) तेरी प्राणशक्ति बढे, ( ते चक्षुः आप्यायताम् ) तेरी आँख की शक्ति बढ़े, (तेश्रोत्रम्आप्यायताम् ) तेरी श्रोत्र-शक्ति बढ़े। ( यत् ते क्रूरं ) जो तेरा क्रूर स्वभाव था ( यत् आस्थितं ) जो अब स्वस्थ हो गया है। ( तत् ते आप्यायतां ) वह तेरा शान्तस्वभाव बढ़े। यदि तेरा अन्य कोई अङ्ग ( निष्ट्यायतां ) विकृत या अशुद्ध हो जाए ( तत् ते शुध्यतु ) वह तेरा अङ्ग शुद्ध हो जाए। तुझे ( शम्) शान्ति प्राप्त हो (अहोभ्यः ) सब दिनों के लिए। ( ओषधे ) हे ओषधिरूप आचार्य ! आप अपने शिष्य की ( जायस्व ) दुर्गुणों और दुर्व्यसनों से रक्षा कीजिए। ( स्वधिते) हे वज्र के समान कठोर आचार्य ! ( एनं मा हिंसी: ) इस अपने शिष्य की हिंसा मत कीजिए।
अतदयानन्दभाष्य में यह मन्त्र आचार्य की ओर से शिष्य को कहा गया है। जब माता-पिता अपने पुत्र को गुरुकुल में प्रविष्ट करा देते हैं, तब उसके शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, शैक्षणिक विकास का और उसे सब दृष्टियों से योग्य बनाने का उत्तरदायित्व आचार्य का हो जाता है। : आचार्य कह रहा है कि मेरे शिक्षण से तेरे मन की शक्ति बढ़े। मन के द्वारा शिष्य मनन चिन्तन करता है, अन्य ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होनेवाले चाक्षुष, श्रावण आदि ज्ञान में भी मन माध्यम बनता है और मन शिव सङ्कल्प द्वारा उसके चरित्रवान् होने में भी कारण बनता है। अतः मन के बढ़ने का बहुत महत्त्व है। फिर आचार्य कहता है कि तेरी वाणी बढे, वाणी की शक्ति समुन्नत हो। शिष्य वाणी द्वारा ही मन्त्र, श्लोक, गीत आदि का उच्चारण करेगा, पठित पाठ को स्मरण करके आचार्य को सुनायेगा, भाषण कला का अभ्यास करेगा। फिर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य तथा पोषण के लिए प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान आदि प्राणमय कोष का समृद्ध और बलवान् होना भी आवश्यक है। जैसे धौंकनी द्वारा आग धौंकने से धातुओं के मल दग्ध हो जाते हैं, वैसे ही प्राणायाम से इन्द्रियों के दोष नष्ट हो जाते हैं। योग-क्रियाओं का भी मुख्य केन्द्र प्राण ही है। चक्षु की दृष्टिशक्ति और श्रोत्र की श्रवणशक्ति यदि न्यून हो जाए, तो भी शिष्य का विकास नहीं हो सकती। इनकी कार्यशक्ति भी बढ़ी रहना चाहिए। इनके द्वारा शिष्य भद्र को ही देखे और भद्र को ही सुने इसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। यदि शिष्य का स्वभाव क्रूर है, तो आचार्य द्वारा उसे मधुर और शान्त किया। जाना आवश्यक है और स्वभाव का माधुर्य निरन्तर बढते रहना। चाहिए। अन्यथा वह काम, क्रोध आदि विकारों को जन्म देगा। इन परिगणित शक्तियों और अङ्गों के अतिरिक्त भी यदि शिष्य के मस्तिष्क, हृदय, रक्तसंस्थान, पाचनसंस्थान आदि में या मन, बुद्धि, चित्त, आत्मा आदि में कोई विकार या दोष आ जाता है, तो आचार्य द्वारा उसे भी शुद्ध किया जाना चाहिए। शिष्य को सब दिनों में शान्ति प्राप्त रहनी चाहिए, मानसिक अशान्ति रहने से सभी कार्यों को करने में बाधा उपस्थित हो सकती है
अथर्ववेद के ब्रह्मचर्यसूक्त में आचार्य की विशेषताएँ बताते हुए उसे ‘ओषधि ४ भी कहा गया है, क्योंकि वह उसके शारीरिक और मानसिक रोगों को दूर करता है। अतः प्रस्तुत मन्त्र कहता है कि हे ओषधिरूप आचार्य, आप शिष्य की दुर्गुणों, दुर्व्यसनों व रोगों से रक्षा भी कीजिए। आचार्य शिष्य के प्रति मृदु होने के साथ-साथ वज्र के समान कठोर भी होता है, तभी वह तपस्या और नियमपालन करा पाता है। परन्तु वह कठोरता शिष्य की हिंसा या हानि के लिए नहीं, प्रत्युत उसके कल्याण के लिए होती है।
| हे शिष्य ! तू आचार्याधीन वास करके सर्वगुणसम्पन्न बन और हे आचार्यवर ! आप उसे अपनी विद्या और चारित्र्य की संजीवनी बूटी से सर्वोन्नत जीवन प्रदान कीजिए।
पाद-टिप्पणियाँ
१. प्यायी वृद्धौ, भ्वादिः ।
२. नि-ष्ट्यै शब्दसंघातयोः, भ्वादिः ।
३. स्वधिति=वज्र, निघं० २.२० ।
४. आचार्यो मृत्युर्वरुणः सोम ओषधयः पय: । अ० ११.५.१४
तेरे सब अङ्गों की शक्ति बढ़े