तेरी महिमा अपार-रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः प्रजापतिः । देवता परमेश्वरः । छन्दः निवृद् आकृतिः ।
उपयामगृहीतोऽसि प्रजापतये त्वा जुष्टं गृह्णाम्येष ते योनिः सूर्यस्ते महिमा। यस्तेऽर्हन्त्संवत्सरे महिमा सम्बभूव यस्तै वायावन्तरिक्ष महिमा सम्बभूव यस्ते दिवि सूर्ये महिमा सम्बभूव तस्मै ते महिम्ने प्रजापतये स्वाहा देवेभ्यः॥
-यजु० २३.२
हे परमेश्वर ! आप ( उपयामगृहीतः असि ) यम, नियम आदि योगाङ्गों से ग्रहण किये जानेवाले हो। (जुष्टं त्वा ) प्रिय आपको (प्रजापतये ) प्राण, इन्द्रिय आदि प्रजा के स्वामी अपने जीवात्मा के लिए ( गृह्वामि ) ग्रहण करता हूँ। ( एषः ) यह जीवात्मा (तेयोनिः ) आपका घर है, निवासस्थान है। ( सूर्यः ते महिमा ) सूर्य आपकी महिमा है। ( यः ते ) जो आपकी ( अहन् संवत्सरे) दिन और वर्ष में ( महिमा सम्बभूव ) महिमा विद्यमान है, ( यः ते ) जो आपकी ( वायौ अन्तरिक्षे ) वायु और अन्तरिक्ष में (महिमा सम्बभूव ) महिमा है, ( यः ते ) जो आपकी (दिवि सूर्ये ) द्युलोक और सूर्य में | ( महिमा सम्बभूव ) महिमा है ( तस्मै ते महिम्ने ) उसे तेरी महिमा के लिए, (प्रजापतये) प्रजापति जीवात्मा के लिए और ( देवेभ्यः) शरीरस्थ सब प्राणों, इन्द्रियों आदि के लिए ( स्वाहा ) सुप्रशंसा के वचन हम कहते हैं।
जब हम इस विशाल सृष्टि की ओर निहारते हैं, तब सहसा यह विचार मन में आता है कि इसकी रचना करनेवाली कोई होना चाहिए। तब हम परमेश्वर को मानने के लिए बाध्य हो जाते हैं और हमारा प्रयत्न होता है कि हम उस महामहिम के दर्शन करें। चर्म चक्षुओं से उसके दर्शन नहीं हो सकते, क्योंकि वह अकाय है, उसका कोई भौतिक शरीर नहीं है। वह ‘उपयाम’ से गृहीत होता है। उपयाम का अर्थ है ,समीप गमन। उसके समीप जाने के लिए रेलगाड़ी, मोटरकार, जलपोत या विमान की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसके सामीप्य के लिए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि इन अष्टाङ्गों की साधना करनी पड़ती है। जब उसकी झाँकी मिलती है, तब वह बड़ा प्रियदर्शन प्रतीत होता है। उसके साक्षात्कार से जीवात्मा को बड़ा बल मिलता है। साधक को ऐसा लगता है कि मैं इसे अपने आत्मा में बसा लँ, मेरा आत्मा उसका घर हो जाए, उसका निवासस्थान बन जाए। फिर उसे प्रकृति में सर्वत्र उसकी महिमा दीखने लगती है। वह कहता है कि दिन में और बारह महीनों वाले वर्ष में जो महिमा दृष्टिगोचर होती है, वह आपकी ही है। दिन और रात्रि क्रमशः एक-दूसरे के बाद आते हैं। रात्रि का अन्धकार छाया हुआ है, सब प्राणी विश्राम कर रहे हैं। उषा खिलती है, सूर्योदय होता है, अंधेरा मानो गिरि-कन्दराओं में शरण लेने भाग जाता है। प्रभातवेला में सब विश्राम से उठकर अपने-अपने कार्यों में संलग्न हो जाते हैं। सूर्य गगन के मध्य में जा पहुँचता है। मध्याह्न होता है, सायंकाल होता है, फिर रात्रि आती है, फिर सूर्योदय होता है। दिनों से पखवाड़ा बनता है, महीने बनते हैं, ऋतुएँ बनती हैं, वर्ष बनता है। ऋतुओं का क्रम से आना-जाना, ग्रीष्म-वर्षा-शरद-हेमन्त-शिशिर वसन्त का क्रीडा करना कैसा सुहावना प्रतीत होता है। यह सब महिमा आपकी ही है। फिर वायु और अन्तरिक्ष की महिमा भी दर्शनीय है। कभी वायु शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन के रूप में और कभी साँय-साँय, झाँय-झाँय करता हुआ झंझावात के रूप में प्रकट होता है। उसके साथ-साथ वृक्ष वनस्पति-लताएँ झूमती हैं। अन्तरिक्ष में बादल बनना, बिजली चमकना-गरजना, कभी बूंदा-बांदी, कभी रिमझिम, कभी मूसलाधार वृष्टि होना यह सब कैसा महिमामय है! यह महिमा भी आपकी ही है। फिर सूर्य और द्युलोक की महिमा भी निराली है। यह छोटे गोल थाल जैसा प्रतीत होनेवाला सूर्य आकार में और भार में कितना बड़ा है, इसकी कल्पना करना भी कठिन है। उसमें कोसों लम्बी ज्वालाएँ निकल रही हैं। यह अपने सब ग्रहों को उनके उपग्रहों सहित अपनी आकर्षण शक्ति से अपने चारों ओर घुमा रहा है। इन सबके प्राणों का और ऊर्जा का यह केन्द्र है। द्युलोक में जो छोटे-छोटे असंख्यों नक्षत्र दीख रहे हैं, ये सूर्य से भी बड़े प्रकाशमय लोक हैं, जिनके अपने-अपने ग्रह और उपग्रह हैं। यह सूर्य और द्युलोक की दिव्य महिमा भी आपकी ही है। इन और इन जैसी अन्य अनेकों महिमाओं के लिए हम ‘स्वाहा’ करते हैं, आपका जयजयकार बोलते हैं। शरीरस्थ प्रजापति जीवात्मा और उसके आश्रित ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन-बुद्धि-प्राणों के लिए भी हम ‘स्वाहा’ करते हैं, क्योंकि यह भी आपकी एक अद्भुत सृष्टि है।
तेरी महिमा अपार-रामनाथ विद्यालंकार