तू विभू है, प्रवाहण है -रामनाथ विद्यालंकार

तू विभू है, प्रवाहण है

ऋषिः मधुच्छन्दाः । देवता अग्निः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

विभूरसि प्रवाहणो वह्निरसि हव्यवाहनः।। श्वात्रोऽसि प्रचेतास्तुथोऽसि विश्ववेदाः ॥

– यजु० ५। ३१

हे अग्ने ! हे अग्रनेता तेजस्वी परमेश्वर ! तू ( विभूः असि ) सर्वव्यापक है, (प्रवाहणः ) धन, धर्म, सद्गुण, सत्कर्म, आनन्द आदि की धाराएँ बहानेवाला है, ( वह्निः असि ) विश्व को वहन करनेवाला है, (हव्यवाहनः) सूर्य, वायु आदि देय पदार्थों को हमारे समीप पहुँचानेवाला है। (श्वात्रः१ असि) शीघ्रकारी एवं गतिप्रदाता है, (प्रचेता:) प्रकृष्ट प्रज्ञावाला एवं प्रकृष्टरूप से चेतानेवाला है। ( तुथः असि) ज्ञानवर्धक है, ( विश्ववेदाः ) विश्ववेत्ता है।

हे अग्नि! हे मेरे अग्रनेता तेजोमय जगदीश्वर ! तुम ‘विभू’ हो, ब्रह्माण्ड के कण-कण में व्यापक हो, सर्वान्तर्यामी हो । तुम्हारी इस विशेषता को यदि हम सच्चे रूप में जान लें, अनुभव कर लें, तो अकर्तव्यों एवं पापों से सदा बचे रहें । हे सर्वेश ! तुम ‘प्रवाहण’ भी हो, सदा धन, धर्म, सद्गुण, सत्कर्म, श्रद्धा, आनन्द आदि की धाराएँ हमारी ओर बहाते रहते हो तथा हमारे अन्दर यदि कोई दुरित या दुर्गुण होते हैं, तो उन्हें धोकर हमारे पास से प्रवाहित कर नष्ट कर देते हो। हे। जगदाधार ! तुम वह्नि अर्थात् विश्व का वहन करनेवाले भी हो। जैसे रथ को वहन करने के कारण घोड़ा ‘वह्नि’ कहलाता है, वैसे ही तुम विश्वरथ के वाहक हो । हे दाता! तुम ‘हव्यवाहन नाम से भी प्रसिद्ध हो, यतः हव्य अर्थात् देय सूर्य, चन्द्र, जल,  वायु, प्राण आदि असंख्य पदार्थों के वाहक अर्थात् हमारे पास पहुँचानेवाले हो। आप ये पदार्थ यदि हमें प्राप्त न कराते, तो हम मानव क्या इनकी रचना स्वयं कर सकते थे? हे प्रभु, तुम *श्वात्र’ हो, क्षिप्रकारी हो, जिस कार्य को करना चाहते हो अविलम्ब कर लेते हो। तुम पदार्थों को गति देने के कारण भी ‘श्वात्र’ कहलाते हो। तुम्हीं ने वायु को गति दी है, तुम्हीं ने भूमि, चन्द्र तथा भूगोल-खगोल के अन्य गतिमय पिण्डों को गति दी है, तुम्हीं हमारे दूरंगम मन को गति देते हो। हे देव! तुम ‘प्रचेताः’ हो, प्रकृष्ट चित्तवाले हो, प्रकृष्ट प्रज्ञावाले हो, प्रकृष्ट रूप से चेतानेवाले हो। हे ज्ञाननिधि ! तुम ‘तुथ’ हो, हमारे आत्मा में ज्ञान की वृद्धि करनेवाले हो । यदि तुमने हमें मन, बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियाँ आदि ज्ञान के साधन न दिये होते, तो हमारा आत्मा अज्ञानी ही बना रहता। हे प्रभु! तुम ‘विश्ववेदाः’ हो, सर्वज्ञ हो, सकल ब्रह्माण्ड के अणु-अणु को जाननेवाले हो। साथ ही ज्यों ही कोई विचार हमारे मन में आता है, त्यों ही तुम उसे जान लेते हो। तुमसे छिपकर हम कुछ भी नहीं सोच पाते, कुछ भी नहीं कर पाते।

| हे प्रकाशमय और प्रकाशक! तुम्हारे उत्तम गुणों को सदा स्मरण करते हुए हम तुमसे यथोचित शिक्षा ग्रहण कर स्वयं को धन्य करते रहें।

पादटिप्पणियाँ

१. श्वात्रमिति क्षिप्रनाम, आशु अतनं भवति, निरु० ५.३ । श्वात्रति गतिकर्मा, निघं० २.१४।।

२. चेत:=प्रज्ञा, निघं० ३.९। प्रकृष्टं चेतः प्रज्ञा यस्य स प्रचेताः । चिती संज्ञाने, भ्वादिः ।

३. तुथः ज्ञानवर्द्धकः । तु गतिवृद्धिहिंसासु इत्यस्याद् औणादिकः थक् प्रत्ययः-द० । ब्रह्म वै तुथः, श० ४.३.४.१५

तू विभू है, प्रवाहण है

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