तू ध्रुवा है, यजमान भी ध्रुव हो
ऋषिः दीर्घतमाः । देवता यज्ञः । छन्दः आर्षी जगती ।
ध्रुवासि ध्रुवोऽयं यजमानोऽस्मिन्नायतने प्रजया पशुभिर्भूयात्। घृतेन द्यावापृथिवी पूर्येथामिन्द्रस्य छुदिरसि विश्वज़नस्य छाया॥
-यजु० ५। २८
हे यजमानपत्नी! तू ( धुवा असि ) ध्रुव है, स्थिर है, ( अयं यजमानः ) यह यजमान भी (अस्मिन् आयतने ) इस घर में, ( प्रजया पशुभिः ) प्रजा और पशुओं के साथ (धुवःभूयात् ) ध्रुव होवे। (घृतेन ) घृत से ( द्यावापृथिवी ) हे। आकाश-भूमि ( पूर्येथां ) तुम भर जाओ। हे यजमानपत्नी ! तू (इन्द्रस्य छदिः असि ) इन्द्र की छत है, (विश्वजनस्य छाया) विश्वजनों की छाया है। |
हे यजमानपत्नी ! तू पतिगृह में स्थिर गृहपत्नी बनकर आयी है। तेरे पतिगृहनिवास में स्थिरता है, स्वभाव में स्थिरता है, कर्तव्यपालन में स्थिरता है, अधिकार में स्थिरता है, सेवा में स्थिरता है, यज्ञ में स्थिरता है। तू जिस कार्य में संलग्न हो जाता है, उसे समाप्त करके ही छोड़ती है। तूने यज्ञ आरम्भ किया है, उसमें भी तुझे स्थिर रहना है। तेरा पति यजमान भी इस घर में, इस यज्ञ में, प्रजा और पशुओं के साथ स्थिर रहे। उसने प्रजा जनी है, तेरे साथ मिलकर उसके लालन-पालन और शिक्षण में स्थिरतापर्वक लगा रहे। उसने दध, खेती और यज्ञ के लिए गाय, बैल आदि पशु पाले हैं, तो उनके पालन-संवर्धन में स्थिरतापूर्वक संलग्न रहे। उसने ब्राह्मण का कार्य, क्षत्रिय का कार्य या वैश्य का कार्य प्रारम्भ किया है, तो उसे स्थिरमति से करता रहे। तेरी सन्तान भी स्वयं को योग्य बनाने में और घर के तथा बाहर के पूज्य जनों की सेवा में तत्पर रहे।
तुमने जो यज्ञ प्रारम्भ किया है, उसमें तुम यजमान और यजमानपत्नी हो। यज्ञ के लिए तुमने गौएँ पाली हैं। उनका घृत लो कि घृत से द्यावापृथिवी भर जाएँ। प्रत्येक स्वाहा’ के साथ तुम्हें न्यूनतम ६ माशे घृत की आहुति देनी है। यदि तुमने लक्ष आहुतियों का यज्ञ रचाया है, तो यज्ञ के लिए ही पर्याप्त घृत की आवश्यकता पड़ सकती है। यज्ञ के पश्चात् अतिथियों के सत्कार के लिए और गृहसदस्यों के द्वारा घृतसेवन किये जाने के लिए भी प्रचुर घृत अपेक्षित है। फिर घृत प्रतीक है ऐश्वर्य का, अत: इतना ऐश्वर्य कमाओ कि उसे रखने के लिए धरती-आकाश भी छोटे पड़ जाएँ। ऐश्वर्य के विषय में ‘वयं स्याम पतयो रयीणाम् ‘ यह वैदिक आदर्श है।
हे यजमानपत्नी ! तू इन्द्र की छत है। छत का कार्य घर और गृहसामग्री की रक्षा करना होता है। छत रक्षा का प्रतीक है। तात्पर्य यह है कि तेरे अन्दर रक्षा का सामर्थ्य इन्द्र-जैसा है। अतः जब तक यज्ञ प्रवृत्त रहे, तब तक जो भी तेरे आश्रम में आयें उन्हें आश्रय दे, उन्हें अपनी रक्षा में ले और यज्ञ– समाप्ति पर उन्हें दक्षिणा देकर विदा कर। तू विश्वजनों की छाया है। जैसे वृक्ष की छाया थके हुए को विश्राम देती है, ग्रीष्म-तप्त को शीतलता देती है, ऐसे ही जो भी दीन-दु:खी तेरी शरण में आ जाए, उसे तेरी सुखद छाया मिलनी चाहिए। तू नगर की छायी बन जा, राष्ट्र की छाया बन जा, विश्व की छाया बन जा। तेरी यह ख्याति हो जानी चाहिए कि तेरे पास से कोई खाली हाथ नहीं लौटेगा।
हे यजमान और यजमानपत्नी ! तुम्हारा यज्ञ सफल हो, तुम्हारा यज्ञ पूर्ण हो, तुम्हें भगवान् का आशीर्वाद प्राप्त हो, तुम्हारे यज्ञ का प्रसाद अन्यों को भी यज्ञ का प्रेमी बनाये। | इस मन्त्र के दयानन्दभाष्य का भावार्थ यह है-“मनुष्यों को चाहिए कि जिन यज्ञानुष्ठाता यजमान और यजमानपत्नी के द्वारा और जिस यज्ञ से निश्चल विद्या तथा सुख प्राप्त हों और दु:ख नष्ट हों, उनका सदा सत्कार करें और उस यज्ञ का सदा अनुष्ठान करें ।।
पाद-टिप्पणी
१. हे यज्ञानुष्ठात्र यजमानपत्न! यथा त्वमस्मिन्नायतने जगति स्वस्थाने यज्ञे वा प्रजया पशुभिः सह ध्रुवासि तथाऽयं यजमानो ऽपि ध्रुवोऽस्ति-दे० ।।
तू ध्रुवा है, यजमान भी ध्रुव हो