तुम दाता हो, मुझे भी दो -रामनाथ विद्यालंकार

तुम दाता हो, मुझे भी दो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषि: तापसः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी अनुष्टुप् ।

अग्नेऽअच्छा वदेह नुः प्रति नः सुमना भव। प्र नो यच्छ सहस्रजित् त्वहि धनदाऽअसिस्वाहा।

-यजु० ९।२८

( अग्ने ) हे अग्रनेता तेजस्वी परमात्मन् ! आप (इह ) यहाँ, इस संसार में (नः अच्छ) हमारे प्रति ( वद ) सदुपदेश करते रहो। ( नः प्रति ) हमारे प्रति ( सुमनाः भव) शुभ मनवाले होवो। हे ( सहस्रजित् ) सहस्रों ऐश्वर्यों के विजेता ! आप ( नः प्र यच्छ) हमें ऐश्वर्य देते रहो, ( हि ) क्योंकि ( त्वम् ) आप ( धनदाः असि ) ऐश्वर्यों के प्रदाता हो। (स्वाहा ) हम आपके प्रति आत्मसमर्पण करते हैं।

हे ज्योतिर्मय प्रभु ! हमने अपने हृदय में तुम्हारी जोत जगायी है, तुम्हें अपना हृदयेश बनाया है। तुम ‘अग्नि’ हो, प्रकाशप्रदाता हो, हमारे अन्तस्तल में भी ज्ञान को प्रकाश देते हो। तुम हमें नित्य सदुपदेश देते रहो, हमारे अन्दर ‘सत्यं, शिवं, सुन्दरम्’ की प्रेरणा करते रहो। हम मार्ग से भटकने लगें, तो हमें मार्ग पर लाते रहो। हमारे सम्मुख जो अज्ञान को अन्धकार छाया हुआ है, उसे दूर करते रहो। हमें कर्तव्यबोध कराते रहो। हमारे अन्दर से तामसिकता को हटाकर हमें विवेक एवं जागरूकता की ज्योति प्रदान करते रहो।।

हे देव! तुम हमारे प्रति ‘सुमना:’ होवो, सुप्रसन्न मनवाले होवो। तुम हमें पुचकारो, दुलराओ, अपना स्नेह हमारे प्रति उंडेलो, अपने भावभीने मञ्जल आशीर्वचनों से हमें कृतकृत्य करो।

हे मेरे परम प्रभु ! तुम ‘सहस्रजित्’ हो, तुमने सहस्रों का दिल जीता हुआ है, मेरा भी दिल जीत लो ! तुम ‘सहस्रजित्’ इस कारण भी हो कि तुमने सहस्रों ऐश्वर्यों को जीता हुआ है, सहस्रों ऐश्वर्य तुम्हारे पास भरे पड़े हैं। तुम मुझे भी ऐश्वर्य प्रदान करो, क्योंकि तुम ‘धनदाता’ नाम से विख्यात हो। तुम्हारे पास न्याय का ऐश्वर्य है, तुम्हारे पास दया का ऐश्वर्य है, तुम्हारे पास सहृदयता का ऐश्वर्य है, तुम्हारे पास प्रेम का ऐश्वर्य है, तुम्हारे पास परोपकार का ऐश्वर्य है। इन इन आन्तरिक ऐश्वर्यों के अतिरिक्त जगत् की सब भौतिक धन दौलत भी तुम्हारी ही है। हे प्रभु, तुम ये सब ऐश्वर्य मुझे भी प्रदान करो। तुम मुझे भी न्यायकारी, दयालु, सहृदय, प्रेमी, परोपकारी बना दो। तुम मुझे भी भौतिक धन-सम्पदा से परिपूर्ण कर दो। ‘स्वाहा’-मैं तुम्हें आत्मसमर्पण करता हूँ, स्वयं को आहुति बनाकर तुममें आहुत करता हूँ। तुम मेरे इस आहुतिदान को स्वीकार करो। मुझे अपनी अग्नि में तपा कर कुन्दन बना दो।

तुम दाता हो, मुझे भी दो -रामनाथ विद्यालंकार

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