ज्ञान की प्राप्ति कैसे?- श्री पीताम्बर जी रामगढ़ (जैसलमेर निवासी) एक भावनाशील आर्य पुरुष हैं। सफल व्यापारी व कुशल मिशनरी हैं। आपने एक सूझबूझ वाले सज्जन से चलभाष पर मुझसे शंका समाधान करवाया। मैंने उस भाई के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि विस्तार से तड़प-झड़प में उत्तर दूँगा और मिलने पर वार्तालाप करेंगे, उस बन्धु का प्रश्न था कि ज्ञान कहाँ से कैसे प्राप्त होता है?
मैंने कहा वेदानुसार सृष्टि के आदि में परमात्मा ने ऋषियों की हृदय रूपी गुफा में ज्ञान का प्रकाश किया फिर परम्परा से यह ज्ञान अगली पीढिय़ों तक पहुँचता जाता है। अन्न, जल, वायु, प्रकाश, पेड़, पशु, शरीर सब कुछ भगवान् देता है। इनके उपयोग प्रयोग का ज्ञान भी उसी ने दिया। ज्ञान के बिना सुख के साधनों व सम्पदा को देने का लाभ ही क्या?
वेद में आता है हमें ज्ञानी पवित्र करें। हमें ज्ञानियों व दानियों का संग प्राप्त हो। श्रद्धा से सत्य की (ज्ञान की) प्राप्ति होती है। गीता का कथन है कि श्रद्धा से बढक़र पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं। कारण? श्रद्धा से सत्य प्राप्त होता है। ज्ञानी ही ज्ञान दे सकता है। यह वेदोपदेश है। मैं या आप वेद से तो आगे नहीं। उस सज्जन पुरुष ने माना कि वेद का वचन ही प्रमाण है। बिना सिखाये कोई कुछ नहीं सीखता। कपड़ा सीना जिसे आता हो, वही हमें अपनी कला का ज्ञान देता है, कृषक कृषि का ज्ञान देता है, वैज्ञानिक विज्ञान का ज्ञान देता है। जो स्वयं कुछ नहीं जानता, वह दूसरे को कुछ सिखाता नहीं देखा गया। जब मनुष्य कुछ ज्ञानी बन जाता है तो फिर जड़-चेतन, नदी-नालों, पेड़-पौधों, फूलों-कलियों, पशु-पक्षियों से भी शिक्षा ग्रहण कर लेता है। वे शिक्षा देते नहीं, यह ले लेता है। मनुष्य जो कुछ जानता है, वह अपनी कला, अपना ज्ञान दूसरे मनुष्यों को दे सकता है, जैसा ऊपर बताया गया है परन्तु, सर्कस का सिंह, हाथी, बकरा, बैल या पिंजरे का तोता कितना भी प्रशिक्षित कर दिया जाय, वह अपनी कला अपने जातीय बन्धुओं को नहीं सिखा सकता।
मनुष्य व मनुष्येतर योनियों का यह भेद हमें समझना होगा। सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, ज्ञान, प्रयत्न ये जीव के लक्षण हैं, परन्तु ज्ञान का आदान-प्रदान मनुष्य योनि में ही सम्भव है।