जीवित पितरों को श्राद्ध-रामनाथ विद्यालंकार

जीवित पितरों को श्राद्ध-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः। देवता पितरः । छन्दः निवृद् अष्टिः ।

पितृभ्यः स्वधायिभ्य: स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः । अक्षन्। पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितरः पितरः शुन्धध्वम्॥

-यजु० १९ । ३६

(स्वधायिभ्यः पितृभ्यः) अन्न-जल की इच्छा वाले पिताओं के लिए (स्वधा ) अन्न-जल हो, (नमः ) उनका नमस्कार आदि से आदर हो। (स्वधायिभ्यः पितामहेभ्यः ) अन्न-जल की इच्छावाले दादाओं के लिए (स्वधा ) अन्न जल हो, ( नमः ) उनको नमस्कार आदि से आदर हो। (स्वधायिभ्यः प्रपितामहेभ्यः) अन्न-जल की इच्छावाले परदादाओं के लिए (स्वधा ) अन्न-जल हो, (नमः ) नमस्कार आदि से आदर हो। (अक्षन् ) भोजन कर लिया है ( पितरः ) पितृजनों ने, (अमीमदन्त ) हमें आनन्दित कर लिया है। (पितरः ) पितृजनों ने, ( अतीतृपन्त ) हमें तृप्त कर दिया है। (पितरः ) पितृजनों ने। हे ( पितरः ) पितृजनो! आप हमें ( शुन्धध्वम् ) उपदेश देकर शुद्ध-करो।

परम्परानुसार मृतकश्राद्ध केवल पिता, पितामह और प्रपितामह के लिए ही किया जाता है, प्रप्रपितामह आदि के लिए नहीं । वेद में भी पिता, पितामह और प्रपितामह तक का ही नाम आता है, परन्तु वह मृतकश्राद्ध नहीं, जीवितों का श्राद्ध है। प्रतिवर्ष श्राद्ध के पखवाड़े में जिस तिथि को जिसका देहान्त हुआ होता है, उस दिन ब्राह्मणों को जिमाया जाता है। तथा उन्हें वस्त्र आदि भेंट किये जाते हैं। समझा यह जाता है।  कि हमारे पितरों को यह भोजन और ये वस्त्रादि पहुँच जाते हैं और इनसे वे तृप्त हो जाते हैं, अन्यथा वे भूखे और निर्वस्त्र रहें।।

‘स्वधा’ शब्द निघण्टु में अन्नवाचक और जलवाचक शब्दों में पठित है।’ मन्त्र कहता है कि अन्न-जल के इच्छुक पिताओं को अन्न-जल दो और नमस्कार आदि से उनका आदर करो। अन्न-जल के इच्छुक पितामहों को अन्न-जल दो और नमस्कार आदि से उनका आदर करो। अन्न-जल के इच्छुक प्रपितामहों को अन्न-जल दो और नमस्कार आदि से उन्हें आदर दो। किसी व्यक्ति के जीवनकाल में उसके अधिक से अधिक प्रपितामह ही जीवित रह सकते हैं। कल्पना कीजिए किसी व्यक्ति का विवाह २५ वर्ष की आयु में हुआ है। सामान्यतया २६ वर्ष की आयु में उसकी सन्तान हो जाएगी। जब २५ वर्ष की आयु में उसके पुत्र का विवाह होगा और उसके पौत्र या पौत्री उत्पन्न होंगे, तब उसकी आयु ५२ वर्ष की होगी, तब वह वानप्रस्थ हो जाएगा। पौत्र का २५ वर्ष की आयु में विवाह होकर जब उसकी सन्तान होगी, तब दादा लगभग ७८ वर्ष का होगा। प्रपौत्र का भी २५ वर्ष की आयु में विवाह होकर जब उसकी सन्तान होगी, तब परदादा की आयु १०५ वर्ष होगी। यदि किसी का विवाह २५ वर्ष से भी कम आयु में हो जाता है, तो प्रपौत्र का पुत्र अपने जीवनकाल में अपने शतवर्षीय प्रपितामह को देख सकेगा। इससे अधिक आयु सामान्यतः नहीं होती है। अतः प्रपितामह तक को ही अन्न-जल देने और नमस्कार आदि से आदर प्रदान करने को वेद कहता है। यदि मृतक श्राद्ध अभीष्ट होता, तो मृतक को अन्न-जल देना और नमस्कार आदि से आदर देना तो प्रपितामह से पूर्व की पीढ़ियों में भी चल सकता था, अतः प्रप्रपितामह आदि का नाम क्यों नहीं लिया गया? वस्तुतः पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र जीवित पितरों का अन्न-जल, नमस्कार आदि से सत्कार कर रहे हैं, अत: वे कहते हैं कि पितृजनों ने भोजन कर लिया  है और आशीर्वाद देकर हमें आनन्दित तथा तृप्त भी कर दिया है। अन्त में पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र उनसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमें उपदेश देकर शुद्ध-पवित्र कीजिए। इस प्रकार यह जीवितों का श्राद्ध चलता है।

यहाँ यह भी द्रष्टव्य है कि यदि पिता-पितामह वानप्रस्थ हो चुके होंगे और प्रपितामह भी वानप्रस्थ या संन्यासी होंगे, तो उन्हें भी कभी-कभी घर बुलाकर उनका सत्कार करना अभीष्ट है। अतएव महर्षि दयानन्द ने अपने भाष्य में इस मन्त्र के भावार्थ में लिखा है-”हे पुत्र, शिष्य, पुत्रवधू आदि जनो ! तुम उत्तम अन्नादि पदार्थों से पिता आदि वृद्धों का निरन्तर सत्कार किया करो तथा पितर लोग भी तुमको आनन्दित करें। जैसे पितादि बाल्यावस्था में तुम्हारी सेवा करते हैं, वैसे ही तुम लोग वृद्धावस्था में उनकी सेवा यथावत् किया करो।”

पाद-टिप्पणी

१. स्वधा=जल, निघं० १.१२, अन्न २.७।

जीवित पितरों को श्राद्ध-रामनाथ विद्यालंकार 

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