जीवित पितरों की श्री मुझे प्राप्त हो -रामनाथ विद्यालंकार

जीवित पितरों की श्री मुझे प्राप्त हो -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वैखानसः । देवता श्री: । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

ये समनाः सर्मनसो जीवा जीवेषु मामूकाः। तेषाश्रीर्मयि कल्पतामस्मिँल्लोके शतसमाः ।।

-यजु० १९ । ४६

( ये ) जो ( जीवेषु ) जीवितों में (समाना:१) सप्राण, सचेष्ट, ( समनसः ) मनोबल से युक्त ( मामकाः) मेरे ( जीवाः ) जीवित पितर हैं, ( तेषां श्रीः ) उनकी श्री (मयिकल्पतां) मुझे प्राप्त होती रहे ( अस्मिन् लोके) इस लोक में ( शतं समाः ) शत वर्ष तक।

मैं अपने पितरों पर दृष्टिपात करता हूँ, तो गर्व से मेरा सिर ऊँचा हो जाता है और मैं उनके प्रति नतमस्तक हो जाता हूँ। ये पितर वानप्रस्थ और संन्यासी मेरे पिता, पितामह, प्रपितामह भी हो सकते हैं, गुरुकुलों के आचार्य भी हो सकते हैं और मुझसे जिनका रक्तसम्बन्ध कुछ नहीं है, किन्तु हैं जो मेरे ही, क्योंकि मुझ-जैसे लोगों के उत्थान के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं, ऐसे साधु, सन्त, योगी, महात्मा, नेता जन भी हो सकते हैं। देखो, ये महात्मा जङ्गल में वृक्ष के नीचे शिला पर दो-दो घण्टे समाधिस्थ बैठे रहते हैं और जब कभी समाधि-सुख छोड़ कर नगर में जनता को दर्शन देने आते हैं, तब इनके मौन उपदेश से सहस्रों की जनमण्डली कृतार्थ हो जाती है। दूसरे ये भगवे वस्त्रधारी परिव्राजक हैं, जो वेदमन्त्र द्वारा ईशस्तुति करके जब धाराप्रवाह भाषण करते हैं, तब सब अविद्याएँ और भ्रमजाल कटते जाते हैं और असत्य पर सत्य की विजय होती चलती है। इनके सदुपदेश अन्धकार में ज्योति का कार्य करते हैं। इन योगी सन्त की ओर भी निहारो, जो नगर-नगर में जाकर, योगशिविर लगाते हैं और जनता को हठयोग की क्रियाएँ तथा ध्यानयोग का प्रशिक्षण देते हैं। इन्हें भी देखो, ये मेरे पितामह हैं, जो वानप्रस्थाश्रमी होकर तपस्या का जीवन व्यतीत कर रहे हैं तथा वैदिक ग्रन्थ-लेखन की सारस्वत साधना में संलग्न हैं। ये सभी ज्ञानरसप्रदान द्वारा मेरा और मत्सदृश सहस्रों का पालन करने के कारण पितर हैं। ये मेरे हैं और मैं इनका हूँ। ये ‘समाना:’ हैं, सप्राण और सचेष्ट हैं। इनके जागरूक प्राणवाला होने के कारण ही सहस्रों-लाखों की जनता मन्त्रमुग्ध की तरह इनके पीछे चलने को तैयार हो जाती है। ये समनसः’ हैं, मनोबल के धनी हैं। इनके मन में यह शक्ति है कि कष्ट से कराहनेवालों को आशीर्वाद से ही चङ्गा कर देते हैं। ये सब जीवित हैं, मृत पितर नहीं हैं। मैं चाहता हूँ कि इनमें जो ‘श्री’ है, वह मुझे शत वर्ष तक प्राप्त होती रहे, यावज्जीवन मिलती रहे। इनमें ‘श्री’ है विद्या की, अगाध पाण्डित्य की, कर्मनिष्ठा की, तपस्या की, ईश्वरभक्ति की, परोपकार की, अनृत से सत्य की ओर ले जाने की। इनमें ‘श्री’ है अहिंसा की, मैत्रीभाव की, धार्मिकता की, अशिव को शिव और असुन्दर को सुन्दर बनाने की। इनमें ‘श्री’ है दरिद्रता को दूर करने की, पाप-कालिमा को धोने की, वैरभाव को नष्ट करने की, अशान्ति को शान्ति में बदलने की, सांसारिकता में आध्यात्मिकता लाने की। इनकी यह ‘श्री’, इनकी यह सम्पदा, इनकी यह ज्योति, इनकी यह विभूति मुझे भी प्राप्त हो, यही मेरी कामना है, यही मेरी साधना है।

पाद टिप्पणी

१. समाना:=१. सप्राण, सम्-आना:, अन प्राणन। २. सचेष्ट, समुअनिति गतिकर्मा, निघं० २.१४।।

जीवित पितरों की श्री मुझे प्राप्त हो -रामनाथ विद्यालंकार 

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