जिसके प्रभु रक्षक हैं -रामनाथ विद्यालंकार

 जिसके प्रभु रक्षक हैं  -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः मधुच्छन्दाः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री।

यमग्ने पृत्सु मम वाजेषु यं जुनाः। स यन्ता शश्वतरिषः स्वाहा।

-यजु० ६ । २९

( अग्ने ) हे अग्रनायक जगदीश्वर ! आप ( यं मर्त्यम् ) जिस मनुष्य को ( पृत्सु ) संग्रामों में, सङ्घर्षों में ( अवा: ) रक्षित करते हो, ( यम् ) जिसे ( वाजेषु ) आन्तरिक बलों के निमित्त ( जुनाः३) प्रेरित करते हो, ( सः ) वह ( यन्ता ) प्राप्तकर लेता है (शश्वती:इषः५) अविनश्वर इच्छासिद्धियों को, (स्वाहा ) यह कथन सत्य है।

जीवन में मनुष्य को अनेक सङ्घर्षों का सामना करना पड़ता है। कभी आध्यात्मिक सङ्घर्षों से जूझना पड़ता है, तो । कभी बाह्य सङ्घर्षों से । काम, क्रोध आदि षड् रिपु ही उसे उद्विग्न किये रखने में पर्याप्त हैं। फिर हिंसा, असत्य, तस्करी, रिश्वतखोरी, धोखाधड़ी आदि अन्य मन के आन्तरिक शत्रुओं की अपार सेना उसे कवलित करने के लिए खड़ी रहती है। परन्तु इन अन्त:शत्रुओं से घबरा कर मनुष्य सङ्घर्षों पर विजय नहीं पा सकता। वह सङ्घर्षों का स्वागत करे और उन्हें परास्त करने का प्रयास करे, तो अग्रनेता प्रभु उसके सहायक होते हैं और उसकी रक्षा करते हैं। वे उसे संग्रामों तथा सङ्घर्षों में विजयी होने के लिए आन्तरिक बल प्रदान करते हैं। धन्य हैं। वे लोग, जो आन्तरिक संग्रामों और सङ्घर्षों में परम प्रभु से रक्षा, मनोबल तथा विजयी होने का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। जितना ही अधिक अन्त:शत्रु मनुष्य को दबोचते हैं, उतना ही  अधिक साहस और अन्तर्बल मनुष्य को जुटाना होता है। यदि योगसाधक सचमुच इन आन्तरिक विपदाओं में प्रभुकृपा से विजयी हो जाए, तो अविनश्वर इच्छासिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। कामदेव के जय से उसके चेहरे पर एक सात्त्विक तेज आ जाता है। क्रोध के जय से वह शत्रुओं को भी मित्र बना लेता है। लोभ के जय से उसमें दानशीलता एवं परोपकार भावना घर कर लेती है। मोह के वश से राग-द्वेष उससे छूट जाते हैं तथा उसे वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है। मद या अभिमान के जय से वह इतना विनयी बन जाता है कि उसकी बात को कोई टाल नहीं सकता। मत्सर के जय से वह सबके प्रति समदर्शी हो जाता है। हिंसा के जय से सब प्राणियों का उसके प्रति निर्वैर हो जाता है। असत्य के जय से वाणी में ऐसी शक्ति आ जाती है, जो सबको प्रभावित करती है। स्तेय के जय से सब वस्तुओं की प्राप्ति स्वयमेव होने लगती है। प्रभु जिसे अन्तर्युद्धों में रक्षा प्रदान करते हैं तथा अन्तर्बल की प्राप्ति करा देते हैं, उसे सचमुच ऐसी अमोघ दिव्य शक्तियाँ स्वतः प्राप्त हो जाती हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. पृत्सु=संग्रामेषु । निघं० २.१७

२. अवाः अवसि रक्षसि । लेट्, ‘इतश्च लोप: परस्मैपदेषु’ पा० ३.४.९७,से इकारलोप, ‘लेटोऽडाटौ’ पा० ३.४.९४ से आट् का आगम।

३. जुना:, जु गतौ, श्ना, सिप्, इतश्च लोपः परस्मैपदेषु । ४. यम धातुरत्र प्राप्त्यर्थः। तृजन्तमेतत्, आद्युदात्तत्वात्’–उवटः ।

५. इषः इच्छासिद्धी:, इषु इच्छायाम् ।

 जिसके प्रभु रक्षक हैं  -रामनाथ विद्यालंकार 

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