जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः दीर्घतमा: । देवता वरुण: । छन्दः क. आर्षी त्रिष्टुप्,| र. निवृद् अनुष्टुप् ।।
कमापो मौषधीहिंसीर्धाम्नोधाम्नो राजॅस्ततो वरुण नो मुञ्च। यदाहुघ्न्याऽइति वरुणेति शपमहे ततो वरुण नो मुञ्च। ‘सुमित्रिया नऽआपओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु। योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः
-यजु० ६ । २२
हे ( वरुण राजन् ) वरणीय राजन् ! ( मा अपः ) न जलों को, ( मा ओषधीः ) न ओषधियों को ( हिंसीः ) हिंसित या दूषित करो। ( धाम्नः धाम्नः ) प्रत्येक स्थान से (ततः) उसे हिंसा या प्रदूषण से ( नः मुञ्च ) हमें छुड़ा दो। (शपामहे ) हम शपथ लेते हैं कि ( यद् आहुः ) जो यह कहते हैं कि । गौएँ ( अघ्न्याः इति ) अघ्न्या हैं, न मारने-काटने योग्य हैं, । ( ततः ) उससे ( वरुण ) हे श्रेष्ठ राजन् ( नो मुञ्च ) हमें मत छुड़ा। (सुमित्रियाः) सुमित्रों के समान हों ( नः ) हमारे लिए ( आपः ) जल और ( ओषधयः ) ओषधियाँ, ( दुर्मित्रियाः तस्मै सन्तु ) दुर्मित्रों के समान उसके लिए हों (यःअस्मान्द्वेष्टि) जो हमसे द्वेष करता है, ( यं च वयं द्विष्मः ) और जिससे हम द्वेष करते हैं।
हे मानव ! यदि तू शुद्ध सागपात खाना चाहता है और शुद्ध जल पीना चाहता है, तो जल और ओषधियों को न प्रदूषित कर, न समाप्त कर । प्रदूषित जल पीने और प्रदूषित ओषधियों तथा उनके पत्र, पुष्प, अन्न, फल, फली आदि के खाने से यह पवित्र नर-तन मलिनताओं और रोगों का अड्डा बन जाएगा। यदि जल और ओषधियाँ दुर्लभ हो जाएँ, तब तो मनुष्य का जीवन ही विपत्ति में पड़ जाएगा। हे श्रेष्ठ राजन् ! हे प्रजा द्वारा प्रजा में से बहुसम्मति द्वारा चुने हुए राजन् ! धाम धाम में, स्थान-स्थान में इस जल-प्रदूषण और ओषधि प्रदूषण तथा जल-विनाश और ओषधि-विनाश से लोगों को राजनियम द्वारा रोकिये। साथ ही राष्ट्र में गौओं का संरक्षण भी आवश्यक है, अतः जनता से प्रतिज्ञा करवाइये, हस्ताक्षर अभियान प्रारम्भ करवाइये कि कहीं भी गोवध न हो, गौएँ मारी-काटी न जाएँ न ही गोमांस का भक्षण और व्यापार हो। यदि कोई गोमांस खाता है, तो उसे आजीवन कारावास का दण्ड दिया जाए। जल और ओषधियाँ हमारे साथ मित्र जैसा आचरण करें, अर्थात जैसे मित्र मित्र को लाभ पहुँचाता है। वैसे ही शुद्ध जल और शुद्ध ओषधि-वनस्पतियाँ हमें लाभ पहुँचाएँ, शरीर की भूख-प्यास मिटाएँ, शरीर को स्वस्थ रखें और शरीर को पुष्ट करें। परन्तु समाज में ऐसे लोग भी हैं, जो पर्यावरणशुद्धि की ओर कुछ ध्यान नहीं देते, जान-बूझकर कूपों, सरोवरों तथा नदियों का जल प्रदूषित करते हैं, वनस्पतियों-ओषधियों को दूषित जल से सींचते हैं, दूषित खाद देते हैं वे जल और ओषधियों के भी द्वेषी हैं, हमारे भी द्वेषी हैं। उनके प्रति जल और ओषधियाँ मित्रवत् नहीं, अपितु दुर्मित्र या शत्रु के समान आचरण करें। हम जल और ओषधियों से मित्रवत् व्यवहार करते हैं, अत: हमें सुख दें, जो उनसे अमित्रवत् व्यवहार करते हैं, उनके प्रति वे भी अमित्र हों। तभी उन्हें शिक्षा मिलेगी।
जल तथा औषधियों की हिंसा मत करो -रामनाथ विद्यालंकार