जननायक को उदबोधन -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।
अयमग्निर्वीरर्तमो वयोधाः संस्त्रियों द्योतमप्रंयुच्छन्। विभ्राज॑मानः सरिरस्य मध्य॒ऽउप प्र याहि दिव्यानि धाम ॥
-यजु० १५।५२
( अयम् अग्निः ) यह जननायक (वीरतमः ) सर्वाधिक वीर, ( वयोधाः ) दूसरों के जीवनों को धारण करनेवाला, ( सहस्त्रियः ) अकेला सहस्र के तुल्य (अप्रयुच्छन् ) प्रमाद न करता हुआ ( द्योतताम् ) चमके। हे वीर ! (सरिरस्य मध्ये ) जनसागर के बीच (विभ्राजमानः ) देदीप्यमान होता हुआ तू ( दिव्यानि धाम) दिव्य धामों अर्थात् यशों को ( उप प्र याहि ) प्राप्त कर।
जननायक को वेद में अग्नि कहा गया है, क्योंकि वह जनों का अग्रणी या अग्रनेता होता है और अग्नि के समान जाज्वल्यमान, तेजस्वी तथा ऊर्ध्वगामी होता है। हमारा जननायक ‘वीरतम’ है, सर्वाधिक वीर है। वह शरीर से भी वीर है, मन से भी वीर है, आत्मा से भी वीर है। वह वयोधाः’ है, असहायों के जीवनों को सहारा देनेवाला है। वह ‘सहस्रिय’ है, अकेला सहस्र के बराबर है। जब शत्रु से रण ठनता है। या समाज पर कोई अन्य विपदा आती है, तब वह सहस्र विरोधियों से लोहा ले सकता है। परन्तु इन महान् गुणों से युक्त भी जननायक यदि प्रमादी हो जाए, तो ये सब गुण व्यर्थ हो जाते हैं। अतः हम चाहते हैं कि हमारा जननायक कभी प्रमाद ने करता हुआ, सदा अपने कर्तव्य का पालन करता हुआ द्युतिमान् बना रहे। प्रमाद कालिमा है, कर्तव्यपालन ज्योति है। प्रमाद की कालिमा से काला होकर मनुष्य अपनी द्युति खो बैठता है। |
हे जननायक! तुम ‘सलिल’ के मध्य खड़े हो । सलिल पानी को कहते हैं। जब अग्निस्तम्भ पानी के बीच में खड़ा होता है तब लहर-लहर में उसकी छवि दिखायी देती है। तुम भी पानी के बीच खड़े के समान हो, क्योंकि यह जने-सागर तुम्हारे चारों ओर हिलोरें ले रहा है। यह जन-सागर तुम्हारी मित्रभूत प्रजाओं का भी हो सकता है और शत्रु-जनों का भी। मित्रों के मध्य ज्योतिस्तम्भ के समान खड़े तुम जन-जन पर अपनी आभा बखेरो, जन-जन को अपनी ज्योति से द्योतित करो। शत्रुओं के मध्य ज्योतिस्तम्भ के समान खड़े हुए तुम उनके तेज की म्लान करो। हे जननायक! तुम अपने नेतृत्व द्वारा प्रजा का सङ्कटों से उद्धार कर दिव्य धामों को, अलौकिक यशों को प्राप्त करो। प्रजा तुम्हें पुकार रही है। आओ, स्वयं सङ्कट मोल लेकर प्रजा को सङ्कट से छुड़ाओ। राष्ट्र एक होकर तुम्हारा जयजयकार करेगा।
पाद-टिप्पणियाँ
१. सहस्रेण संमित: तुल्यः सहस्रियः। ‘सहस्रेण संमितौ घः’ पा०४.४.१३५, सहस्र शब्द से तुल्य अर्थ में घ=इय प्रत्यय।।
२. युछी प्रमादे-शतृ । न प्रयुच्छन्=अप्रयुच्छन्।
३. सरिर=सलिल= जल। निघं० १.१४। सलिल बहु-वाचक भी है,निघं० ३.१।।
४. दिव्यानि धाम-दिव्यानि धामानि । ‘शेश्छन्दसि बहुलम्’ पा० ६.१.७०से शि का लोप। धामानि त्रयाणि भवन्ति, स्थानानि नामानि जन्मानाति–निरु० ९.२२ ।।
जननायक को उदबोधन -रामनाथ विद्यालंकार