जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः विरूपः । देवता सूर्य: । छन्दः निवृद् आर्षी त्रिष्टुप् ।
चित्रं देवानामुर्दगदनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।। आणू द्यावापृथिवीऽअन्तरिक्षसूर्य’ऽआत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥
-यजु० १३ । ४६
( देवानाम् ) दीप्तिमान् किरणों का (चित्रम् अनीकम् ) चित्रविचित्र सैन्य ( उदगात् ) उदित हुआ है। यह ( मित्रस्य वरुणस्य अग्नेः ) वायु, जल और अग्नि का अथवा प्राण, उदान और जाठराग्नि का ( चक्षुः ) प्रकाशक एवं प्रदीपक है। हे सूर्य! तूने (आअप्राः२) आपूरित कर दिया है ( द्यावा पृथिवी ) द्युलोक और पृथिवीलोक को तथा ( अन्तरिक्ष ) अन्तरिक्ष को। ( सूर्यः ) सूर्य ( आत्मा ) आत्मा है ( जगतः ) जङ्गम का ( तस्थुषः च ) और स्थावर का।
देखो, रात्रि के अन्धकार को चीरता हुआ प्रभात खिल रहा है। सूर्य-रश्मियों का चित्र-विचित्र सैन्य उदित हुआ है। चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश दिखायी दे रहा है। तरु, वल्लरी, सदन, अट्टालिकाएँ, स्तूप राजप्रासाद सब दीप्ति से जगमगाने लगे हैं। अन्धेरा गिरि-कन्दराओं में जाकर छिप गया है। शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन का स्पर्श शरीर को सुखद लग रहा है। नदियों और सरोवरों के जल पर झिलमिलाती हुई दिवाकर की किरणें दर्पण में झाँकती हुई-सी प्रतीत हो रही हैं। अग्नि की ज्वालाएँ अपनी ज्योति के स्रोत सूर्य को देख कर शरमाती हुई-सी लग रही हैं। यही रश्मिपुञ्ज सूर्य, वायु, जल और अग्नि का तथा शारीरिक प्राण, उदान और जाठराग्नि का भी चक्षु है, प्रकाशक है, प्रदीपक है। हे सूर्य! तूने अपनी किरणों से द्युलोक, पृथिवीलोक और अन्तरिक्षलोक को आपूरित कर लिया है। सचमुच यह सूर्य जङ्गम और स्थावर का आत्मा है, प्राण है, जीवन है। इसी सूर्य से मानव आदि प्राणी प्राण प्राप्त करते हैं, इसी सूर्य से वृक्ष-वनस्पति जीवन धारण करती हैं। इसी सूर्य से जङ्गम-स्थावर स्थिति पाता है। यही सूर्य हमारी भूमि का आधार है, यही मङ्गल, बुध, बृहस्पति आदि ग्रहों का आधार है, यही सूर्य इन ग्रहों के उपग्रह भूत चन्द्रों का आधार है। यह तो बाह्य जगत् की लीला है।
अन्तर्जगत् की ओर भी दृष्टि डालो। परमात्मसूर्य की प्रकाशमय दिव्य किरणों का जाल आत्मलोक पर छा रहा है। आत्मलोक पर प्रभात उदित हो रहा है। तामसिकता का अन्धकार विनष्ट हो गया है। इस अन्त:प्रकाश ने प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय लोक को भी प्रकाशित कर दिया है। आत्मा, मन और शरीर को इस परमात्मसूर्य ने पूर्णतः आपूरित कर लिया है। यह परमात्मसूर्य जङ्गम मनोवृत्तियों का और ज्ञानेन्द्रियों का तथा कर्मेन्द्रियों एवं अन्नमय शरीर का प्राण है। हे साधको! इस परमात्मसूर्य से दिव्य प्राण, जीवन और जागृति प्राप्त करो, अन्त:करण को प्रकाशित करो।
पाद-टिप्पणियाँ
१. मित्रस्य प्राणस्य, वरुणस्य उदानस्य-२० ।।
२. आप्रा:=ओ अप्राः, प्रा पूरणे, लङ्।
जङ्गम-स्वर की आत्मा सूर्य -रामनाथ विद्यालंकार