चार पैर फैलायें-रामनाथ विद्यालंकार

चार पैर फैलायें-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः प्रजापतिः । देवता आचार्यब्रह्मचारिणौ ।। छन्दः स्वराड् आर्षी अनुष्टुप् ।

ताऽउभौ चतुरः पदः सम्प्रसारयाव स्वर्गे लोके प्रोवाथां वृषा वजी रेतो धा रेतों दधातु ॥

-यजु० २३.२०

( तौ उभौ ) वे हम दोनों आचार्य और ब्रह्मचारी ( चतुरः पदः ) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चार पैरों को ( सम्प्रसारयाव) फैलायें। हे आचार्य और ब्रह्मचारी ! तुम दोनों (स्वर्गे लोके ) ब्रह्मचर्याश्रम रूप स्वर्ग लोक में (प्रोर्णवाथां) एक-दूसरे को आच्छादित करो। हे ब्रह्मचारिन् । ( वृषा) विद्या का वर्षक ( वाजी ) विद्या-बल से युक्त ( रेतोधाः ) विद्या एवं ब्रह्मचर्य रूप वीर्य का आधानकर्ता आचार्य (रेतः दधातु ) तुझमें विद्या एवं ब्रह्मचर्यरूप वीर्य का आधान करे।

हे ब्रह्मचारिन् ! तू मुझ आचार्य के आचार्यत्व में गुरुकुल में प्रविष्ट हुआ है। आ, तेरे इस ब्रह्मचर्याश्रम में हम दोनों मिल कर चार पैर फैलायें । वे चार पैर हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। सर्वप्रथम तुझे धर्मशास्त्र पढ़ना है। चारों वर्गों, चारों आश्रमों तथा राजा-प्रजा के कर्तव्यों का सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त करना है। साथ ही अपने ब्रह्मचर्याश्रम के व्रतों का क्रियात्मक रूप से पालन करना है। अभी तुझे यह विदित नहीं है, न ही मुझे इसका ज्ञान है कि तू ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में से किस वर्ण को ग्रहण करेगा। जब तू कुछ वर्ष मेरे पास रह कर व्रतपालन और अध्ययन कर लेगा, तब तू भी अपनी रुचि देखेगा और मैं भी तुझे परख लूंगा कि तुझमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य में से किस वर्ण का बनने की योग्यता है। परख लेने के बाद उसी दिशा में तेरा अध्ययन चलेगा। धर्मशास्त्र के साथ तुझे अर्थशास्त्र भी पढ़ना है, क्योंकि विद्या जब तक अर्थकरी नहीं होती, तब तक जीवन में सफलता नहीं मिलती। तू समावर्तन संस्कार के बाद जिस अर्थकरी विद्या से धन अर्जन करने में प्रवृत्त होगा वह विद्या तुझे यहाँ ब्रह्मचर्याश्रम में ही पढ़ लेनी है। ब्रह्मचर्याश्रम में काम और मोक्ष का भी अपना स्थान है। यद्यपि गृहस्थाश्रमवाला ‘काम’ यहाँ नहीं है, तथापि श्रेष्ठ सङ्कल्पोंवाला ‘काम’ यहाँ भी है। ‘काम’ का महत्त्व वर्णन करते हुए अथर्ववेद (९.२.२०,२४) का कथन है कि ‘विस्तार में जितने बड़े द्यावापृथिवी हैं, जितनी बड़ी जलराशि और अग्नि है, उससे भी ‘काम’ अधिक बड़ा है। न वायु ‘काम’ की महत्ता को प्राप्त करता है, न अग्नि, न सूर्य, न चन्द्रमा। उनसे भी अधिक बड़ा काम है।” ब्रह्मचर्याश्रम में भी दृढ़ सङ्कल्प एवं इच्छाशक्ति का उपयोग करना अभीष्ट है। मोक्ष की भी नींव ब्रह्मचर्याश्रम में ही पड़ जाती है। मोक्ष के सम्बन्ध में सैद्धान्तिक ज्ञान ब्रह्मचारी सब प्राप्त कर लेता है, योगाङ्गों को कुछ क्रियात्मक ज्ञान भी पा लेता है। आगामी आश्रमों में मोक्ष की नींव और अधिक पक्की हो जाती है।

मन्त्र की इसके बाद की भाषा ब्रह्मचारी के माता-पिता तथा गुरुकुल से बाहर के विद्वानों की ओर से कही गयी है। ब्रह्मचर्याश्रम-रूप स्वर्ग में रहते हुए तुम दोनों आचार्य और ब्रह्मचारी स्वयं को आच्छादित-रक्षित करते रहो, जिससे पापरूप राक्षस तम्हें व्यथित न करे। सावधान न रहने पर आचार्य और ब्रह्मचारी दोनों ही ऐसे कर्मों में लिप्त हो सकते हैं, जो उनके लिए अभीष्ट नहीं हैं। उनसे बचने के लिए आच्छादन करना, अर्थात् स्वयं को ढकना आवश्यक है। इसके पश्चात् मन्त्र कहता है कि हे ब्रह्मचारी ! विद्या एवं ब्रह्मचर्यरूप वीर्य का आधानकर्ता आचार्य तुझमें विद्या एवं ब्रह्मचर्य के वीर्य का आधान करे, जिससे तू सच्चे अर्थों में विद्वान्, ब्रह्मचारी और व्रतपालक होकर गुरुकुल से बाहर आये और अपनी विद्वत्ता, ब्रह्मचर्य तथा व्रतनिष्ठा का लाभ जनता को पहुँचा सके।

पादटिप्पणी

१. इस मन्त्र का अर्थ उवट एवं महाधर ने अश्वमेध के अश्व एवंमहिषी (राजरानी) परक अत्यन्त भ्रष्ट किया है ।

चार पैर फैलायें-रामनाथ विद्यालंकार  

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *