चतुर्थाश्रमी संन्यासी -रामनाथ विद्यालंकार

चतुर्थाश्रमी संन्यासी

ऋषिः आङ्गिरसः । देवता आदित्यः । छन्दः निवृद् आर्षी पङ्किः।।

कुदा चुन प्रयुच्छस्युभे निपासि जन्मनी तुरीयादित्य सर्वनं तऽइन्द्रियमार्तस्थामृते दिव्यादित्येभ्यस्त्वा॥

-यजु० ८।३ |

क्या आप (कदा चन) कभी ( प्रयुच्छसि ) प्रमाद करते हो ? अर्थात् कभी नहीं करते। ( उभे जन्मनी ) माता-पिता से दिया जन्म और विद्याजन्य जन्म दोनों की (निपासि ) आप रक्षा करते हो, लाज रखते हो। ( तुरीय आदित्य ) हे चतुर्थाश्रमी संन्यासी ! (तेइन्द्रियम् ) आपका प्रत्येक इन्द्रिय-व्यापार ( सवनम् ) यज्ञ होता है। आपका (अमृतम्) अमृतमय उपदेश ( दिवि ) श्रोताओं के आत्मा में (आ तस्थौ ) स्थित हो जाता है, घर कर जाता है।

हे संन्यासी-प्रवर! आप तुरीय आदित्य’ हैं। आदित्य का अर्थ है विद्वान्, क्योंकि वह वेदादि शास्त्रों का रस ग्रहण किये होता है। ‘तुरीय’ का अर्थ है चतुर्थ। इस प्रकार तुरीय आदित्य’ चतुर्थाश्रमी विद्वान् अर्थात् संन्यासी का वाचक होता है। हे परिव्राट् ! आपने पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा तीनों एषणाओं का त्याग करके लोकोपकार का ही व्रत ग्रहण किया हुआ है। इस समय आप हम छात्रों के आचार्य भी हैं। गुरुकुल को आदर्श शैली से चलाने और ब्रह्मचारियों को विद्यादान करने के साथ-साथ जनता में वेदप्रचार का व्रत भी आपने धारण किया हुआ है, अतः समय निकालकर आप वेदोपदेश हेतु बाहर भी जाते हैं। आप कभी अपने कर्तव्य के पालन में प्रमाद नहीं करते। आपने अपने दोनों जन्म सफल किये हुए हैं। प्रथम जन्म माता-पिता से होता है, जब बालक माता के गर्भ से बाहर निकलता है। द्वितीय जन्म आचार्य से होता है, जब पर्याप्त समय आचार्य के गर्भ में रहकर ब्रह्मचा  अपना समावर्तन संस्कार करा कर स्नातक बनता है। आपने इन दोनों जन्मों को फलवान् किया है। माता-पिता से प्राथमिक शिक्षा पाकर, गुरुकुल में प्रविष्ट होकर गुरुजनों से उच्च शिक्षा ग्रहण कर आप उच्चकोटि के विद्वान् बने हैं और अब अपनी विद्वत्ता का लाभ अन्यों को पहुँचा रहे हैं। अब आप स्वयं आचार्य बनकर हम ब्रह्मचारियों को द्वितीय जन्म दिलाने के अनवरत प्रयास में लगे हुए हैं, जिससे हमारे दोनों जन्म सफल हो सकें। इस प्रकार आप अपने और ब्रह्मचारियों के दोनों के दोनों जन्मों को सफल करते हैं।

हे भगवन् ! आपके सभी इन्द्रियों के व्यापारों ने यज्ञ का रूप धारण किया हुआ है। आपका देखना, सुनना, विचार करना, निश्चय करना आदि सभी व्यापार अन्यों को लाभ पहुँचाने के लिए होते हैं। चाहे निन्दा, चाहे प्रशंसा, चाहे मान, चाहे अपमान, चाहे जीना, चाहे मृत्यु, चाहे हानि, चाहे लाभ हो, चाहे कोई प्रीति करे, चाहे वैर बाँधे, चाहे अन्न-पान, वस्त्र, उत्तम स्थान न मिले वा मिले, चाहे शीत-उष्ण कितना ही क्यों न हो संन्यासी सबका सहन करे और अधर्म की खण्डन तथा धर्म को मण्डन सदा करता रहे। जिस-जिस कर्म से गृहस्थों की उन्नति हो वा माता, पिता, पुत्र, स्त्री, पति, बन्धु, बहिन, मित्र, पड़ोसी, नौकर, बड़े और छोटों में विरोध छूट कर प्रेम बढ़े उस-उसका उपदेश करे।”२ आप संन्यासी के इन तथा अन्य शास्त्रोक्त कर्तव्यों का सदा निर्वाह करते हो, कभी उसमें प्रमाद नहीं करते। आपका अमृतोपदेश श्रोताओं के दिव्यगुणी आत्मा में स्थिर हो जाता है, घर कर जाता है। मन्त्र का अन्तिम वाक्य पिता अपने पुत्री से कह रहा है-हे पुत्र तूने प्राथमिक शिक्षा हमारे पास रहकर तथा स्थानीय पाठशाला में पढ़कर प्राप्त कर ली है, अब हम तुझे संन्यासी गुरुजन रूप आदित्यों को सौंप रहे हैं, जिससे तू विद्वान् बन सके।

पाद-टिप्पणियाँ

१. “पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणा मया परित्यक्ता । मत्तः सर्वेभ्योऽभयमस्तु स्वाहा” इस वाक्य को बोल के सबके सामने जल को भूमि में छोड़ देवे। -संस्कारविधि, संन्यास-प्रकरण।

२. संस्कारविधि, संन्यास-प्रकरण ‘यमानु सेवेत सततं’ श्लोक से आगे की भाषा ।

चतुर्थाश्रमी संन्यासी

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