गृहाश्रम -रामनाथ विद्यालंकार

गृहाश्रम

ऋषिः ब्रह्मा। देवता गृहपतयः छन्दः क. प्राजापत्या अनुष्टुप्,र, निवृद् आर्षी जगती।।

के विवस्वन्नादित्यैष ते सोमपीथस्तस्मिन् मत्स्व। श्रर्दस्मै नरो वर्चसे दधात यदाशीर्दा दम्पती वमर्मश्नुतः । पुमान् पुत्रो जायते विन्दते वस्वधा विश्वाहारपएधते गृहे।

-यजु० ८ । ५

हे ( विवस्वन्’ ) अविद्यान्धकार को दूर किये हुए ( आदित्य ) आदित्य के समान प्रकाश से युक्त ब्रह्मचारिन् ! ( एषः ) यह गृहाश्रम ( ते ) तेरे लिए ( सोमपीथ:२) सोम आदि पौष्टिक ओषधियों के पान का आश्रम है। ( तस्मिन्) उसमें (मत्स्व ) आनन्दलाभ कर । ( नरः ) हे मनुष्यो ! (अस्मै वचसे ) इस वचन के लिए ( श्रद्दधातन) श्रद्धा रखो ( यत् ) कि ( आशीर्दा ) दूध का दान करनेवाले (दम्पती ) पति पली (वाममु ) प्रशस्त फल ( अश्रतः ) प्राप्त करते हैं। उनके यहाँ (पमान पत्र: ) पुरुषार्थी पत्र ( जायते ) पैदा होता है, जो ( वसु विन्दते ) धन प्राप्त करता है, ( अध) और (विश्वाहा ) सब दिनों में ( अरपः७) निष्पाप होकर ( गृहे ) में ( एधते ) बढ़ता है। |

हे ब्रह्मचारी ! गुरुकुल में आचार्याधीन निवास करके तू ‘विवस्वान्’ हो गया है, तू अपने अज्ञानान्धकार को दूर करके सूर्य-सदृश हो गया है। सावित्री रूप अदिति का पुत्र होने से तू आदित्य है। अब तेरा समावर्तन संस्कार हो चुका है और तु गहाश्रम में प्रवेश के लिए उद्यत है। यह गहाश्रम ‘सोमपीथ’ है, अर्थात् इसमें बल-वृद्धि के लिए सोम आदि पौष्टिक और सात्त्विक ओषधियों के रस का पान किया जाता है। सोमपीथ’ का अर्थ वीर्यरक्षा भी होता है, अतः यह वीर्यरक्षा का भी आश्रम है। इसमें वीर्यक्षय केवल राष्ट्र को उत्तम सन्तान प्रदान  करने के लिए होता है। इस आश्रम में तेरा स्वागत है। इस आश्रम में तू पत्नी और सन्तान के साथ आनन्दपूर्वक रह। यह आश्रम सम्पत्ति-अर्जन का आश्रम भी है, किन्तु इसमें केवल सम्पत्ति को अर्जन ही नहीं करना है, प्रत्युत दान भी करना है। दान अनेक वस्तुओं का हो सकता है, उनमें गाय का दान या दध का दाने सर्वश्रेष्ठ माना गया है। मन्त्र कह रहा है कि हे मनुष्यो ! इस वचन पर विश्वास रखो कि दूध के दानी पति पत्नी सुन्दर और प्रशस्त फल पाते हैं। दान से धन घटता नहीं, प्रत्युत बढ़ता ही है। उनके घर में पुरुषार्थी पुत्र जन्म लेता है, और वह भौतिक तथा आध्यात्मिक सब प्रकार की सम्पत्ति अर्जित करता है। अपार भौतिक धन का स्वामी होकर भी वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता। सांसारिक सुख-सम्पदा को हेय माननेवाले कतिपय मनीषियों का कथन है कि लक्ष्मी पाकर मनुष्य पाप के गर्त में गिर जाता है। परन्तु वेद समन्वयवादी है। वह कहता है कि दोनों हाथों से भर-भर कर कमाओ, किन्तु पाप की लक्ष्मी नहीं, पुण्य की लक्ष्मी कमाओ। सम्पत्ति पाकर भी पुण्य के कार्य करो। सम्पत्ति कमाओ भी, उसका दान भी करो। दानी लोगों के घर में जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह सब दिन निष्पाप रहता हुआ निरन्तर वृद्धि और उन्नति प्राप्त करता है।

हे विवस्वन् आदित्य! गृहाश्रम में प्रवेश करता हुआ तू वेद के इन वचनों और आशीर्वादों को सदा स्मरण रख। हम तेरा अभिनन्दन करते हैं।

पाद-टिप्पणियाँ

१. विवासयति अपगमयति अविद्यातमांसि यः स विवस्वान् ।

२. सोमः पीयते यस्मिन् स:-द० ।।

३. मत्स्व, मदी हर्षे, दिवादि । वेद में अदादि भी होने से शप् का लुक् ।

४. आशिरं दुग्धं दत्तः यौ तौ आशीद, ‘सुपा सुलुक्०’ पा० ७.१.३९से औ का आ । ‘आशी: आश्रयणाद् वा आश्रपणाद् वा, इन्द्राय गावआशिरम् ऋ० ८.६९.६’ इत्यपि निगमो भवति’ निरु० ६.३५ ।

५.वाम=प्रशस्य, निघं० ३.८।।

६. विद्लु लाभे, तुदादिः ।।

७.न विद्यन्ते रपांसि पापानि यस्य सः । ‘रपो रिप्रमिति पापनामनी भवत:’ निरु० ४.४८।।

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