उससे बढकर कोई पैदा नहीं हुआ -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः विवस्वान्। देवता प्रजापतिः (परमेश्वरः) ।। छन्दः भुरिग् आर्षी त्रिष्टुप् ।।
यस्मन्न जातः परोऽअन्योऽअस्ति यऽविवेश भुव॑नानि विश्वा। प्रजापतिः प्रजया सरगुणस्त्रीणि ज्योतीष्ठषि सचते स षोड्शी॥
-यजु० ८ । ३६ |
( यस्मात् परः ) जिससे उत्कृष्ट ( अन्यः न जातः अस्ति) अन्य कोई उत्पन्न नहीं हुआ है, ( यः ) जो (आविवेश ) प्रविष्ट है (विश्वा भुवनानि) सब भुवनों में । वह ( प्रजापतिः) प्रजापालक परमेश्वर (प्रजया) अपनी प्रजा के साथ ( सं रराण:१) सम्यक् क्रीडा करता हुआ ( त्रीणि ज्योतींषि सचते ) अग्नि विद्युत्-सूर्य तथा मन-बुद्धि-आत्मा इन तीनों तीनों ज्योतियों में समवेत है।
क्या तुम पूछते हो कि प्रजापति से बढ़कर कौन है ? परन्तु यदि तुम प्रजापति को सच्चे अर्थों में जान लो, तो अपने प्रश्न का उत्तर तुम्हें स्वयमेव मिल जाएगा। प्रजापति वह है, जिसने विश्व की सब जड़ चेतन प्रजाओं को जन्म दिया है। ब्रह्माण्ड में जो कुछ दृष्टिगोचर होता है भूमि, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, सूर्य, तारावलि सब उसी का पैदा किया हुआ है। ये सब लोक-लोकान्तर बड़े ही विलक्षण हैं। हम मानव इनके विषय में बहुत कम जान पाये हैं। किन्तु जितना भी जान पाये हैं, वही हमें आश्चर्यचकित कर देता है। जिस भूमि पर हम रहते हैं, उसमें दिन-रात्रि के आवागमन की, ऋतुओं के निर्माण की, जल के वाष्पीकरण की, अन्तरिक्ष से जलवृष्टि की, नदयों के बहने की, सागर के लहराने की, वनस्पतियों के उगने की, प्राणियों के जन्म लेने की, श्वास-प्रश्वास आदि द्वारा जीवनधारण की कैसी सुव्यवस्था उसने की हुई है, यही क्या कम अचरज पैदा करनेवाली बात है ! फिर अन्य लोकलोकान्तरों का तो कहना ही क्या है ! प्रजापति सब प्रजाओं को केवल जन्म ही नहीं देता, किन्तु इन सबका पति अर्थात् अधीश्वर और पालक भी है। इतना पता लग जाने के बाद अपने प्रश्न का उत्तर तुम स्वयं दे सकोगे कि प्रजापति से अधिक बड़ा विश्व-ब्रह्माण्ड में कोई नहीं है।
प्रजापति सब लोकों का न केवल जन्मदाता, व्यवस्थापक और पालक है, अपितु वह सब भुवनों के अन्दर प्रविष्ट भी है, सर्वान्तर्यामी है। अपनी उत्पन्न की हुई प्रत्येक जड़-चेतन प्रजा के साथ वह यथायोग्य क्रीडा कर रहा है। किसी को गति देता है, किसी को स्थिर रखता है, किसी को तपाता है, किसी को शीतलता देता है, किसी को चमकाता है, किसी को निस्तेज रखता है, किसी को आकाश में उड़ाता है, किसी को नीचे पटकता है, किसी को सुन्दरता देता है, किसी पर काला कलूटा रङ्ग फेर देता है। | वह पार्थिव ज्योति अग्नि, अन्तरिक्ष-ज्योति विद्युत् और द्यौ की ज्योति आदित्य तीनों में समवेत है। आन्तर ज्योति मन, बुद्धि और आत्मा में भी विराजमान होकर उन्हें शक्ति दे रहा है। वह प्रजापति ‘षोडशी’ है, सोलहों कलाओं से युक्त चन्द्रमा के समान परिपूर्ण है, उसमें किसी कला की न्यूनता नहीं है। आओ, हम सब उस प्रजापति प्रभु का गुणगान करते हुए उसकी आज्ञा का पालन करें।
पाद-टिप्पणियाँ
१. संरणिः सम्यक् रममाण:-म० । रमु क्रीडायाम्।
२. षच समवाये, भ्वादिः ।।
उससे बढकर कोई पैदा नहीं हुआ -रामनाथ विद्यालंकार