उदबोधन – रामनाथ विद्यालंकार

उदबोधन – रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः दीवतमाः । देवता अग्निः । छन्दः क. प्राजापत्या अनुष्टुप्,। र, आर्ची पङ्गिः, उ. दैवी पङ्किः।

कसं ते मनो मनसा सं प्राणः प्राणेन गच्छताम् । ग्रेडस्यग्निष्ट्रवा श्रीणत्वापस्त्व समरिन्वार्तस्यत्व भ्राज्यै पूष्णो रह्योऽष्मणो व्यथिषयुतं द्वेषः ।

-यजु० ६।१८ |

हे मानव ! ( ते मनः) तेरा मन ( मनसा ) मनन से, और। ( प्राणः ) प्राण (प्राणेन ) महाप्राण से ( सं गच्छताम् ) मिले। तू ( रेड् असि ) शत्रु-हिंसक है। ( अग्निः ) अग्नि (त्वा ) तुझे ( श्रीणातु) परिपक्व करे। (आपः ) नदियाँ ( त्वा ) तुझे ( समरिण) संघर्षरत करें। (त्वा ) तुझे ( वातस्य ) वायु की ( धान्यै) गति के लिए, और ( पूष्णः ) सूर्य के (रंछै) वेग के लिए [प्रेरित करता हूँ] । प्रत्येक मनुष्य ( ऊष्मणः ) ऊष्मा से ( व्यथिष ) व्यथित हो। उससे ( द्वेषः ) द्वेष (प्रयुतं ) पृथक् रहे।

हे मानव ! तू स्वयं को अल्प शक्तिवाला मत समझ। तू विराट् शक्ति का पुंज है। आवश्यकता इस बात की है कि तू अपनी शक्ति को पहचाने। तू प्रकृति से सन्देश ले और आगे बढ़। देख, तू अपने मन से मनन कर, दृढ़ सङ्कल्प कर, शिव सङ्कल्प कर और उसे पूरा करने की ठान ले। कोई बाधा तुझे सङ्कल्प पूरा करने से रोक नहीं सकेगी। अपने प्राण को महाप्राण से संयुक्त कर। तू संसार का सर्वोच्च प्राणी है, तेरे प्राण में वह शक्ति है, जो सागर को सुखा दे, पर्वत को मैदान बना दे, बड़े से बड़े सम्राट् को भिक्षुक बना दे और भिक्षुक के सिर पर राजमुकुट रख दे। तेरी हुङ्कार से महाबली शत्रु का भी दर्प चूर हो सकता है, तेरा मनोवल यमराज को भी पराजित कर सकता है। तेरी साँस मृत को भी जीवन प्रदान  कर सकती है। तू ‘रेडू’ है, शत्रु-हिंसक है, विघ्न बाधाओं को निरस्त करनेवाला है, आततायी को विध्वंस्त कर सकनेवाला है, वैरी को निहत्था और पंगु कर सकता है, संहारक का संहार कर सकता है। तेरे अन्दर अग्नि जलनी चाहिए, ज्वाला धधकनी चाहिए, उससे तू परिपक्व होगा, तेरी न्यूनताएँ दूर होंगी, तेरा कच्चापन निरस्त होगा, तू आग बनकर धधकेगा। तू नदियों से संघर्ष करना सीख। नदियाँ अपने अदम्य प्रवाह से पहाड़ों को तोड़ती हुई, वृक्षों को गिराती हुई, चट्टानों को लाँघती हुई आगे ही आगे बढ़ती जाती हैं। तू भी मार्ग की रुकावटों से सङ्घर्ष कर, रुकावटें खड़ी करनेवालों से सङ्घर्ष कर, आगे ही आगे बढ़ता चल। तू वायु की गति से चल, चंझावात बनकर उमड़। तू सूर्य का वेग धारण कर। सूर्य स्वयं तीव्रता से घूम रहा है और ग्रह-उपग्रहों को अपने चारों ओर घुमा रहा है। तू भी सूर्य के समान केन्द्र में रहकर अन्य राष्ट्रों को अपने चारों ओर घुमा, उनकी गतिविधि का निर्णायक बन्। ध्यान रख, उत्कर्ष पाकर तू ऊष्मा से व्यथा मान, अहङ्कार की गर्मी से प्रताड़ित न हो। उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच कर भी तू विनम्र हो, विनयी हो, परमात्मा के सम्मुख झुक, महात्माओं के चरणों में मत्था टेक, संन्यासियों का आदर कर। शत्रु के दर्प का दलन कर, किन्तु मन में द्वेष किसी के प्रति मत रख। संहार और विजय कर्तव्यबुद्धि से कर, मन में द्वेष रख कर नहीं। पराजित शत्रुओं से भी सन्धि करके उन्हें अपना मित्र बना । तब शत्रु भी तेरा जयकार करेंगे।

पाद-टिप्पणियाँ

१. (रेड्) शत्रुहिंसकः। अत्र रिषतेहिँसार्थात् कर्तरि विच्-द० ।।

२. श्रीणातु परिपचतु । श्रीज् पाके, क्रयादिः ।।

३. सम् अरिण प्राप्नुवन्तु। रिणाति इति गतिकर्मसु पठितम्, निघं०

२.१४-द० ।।

४. (भ्राज्यै) गत्यै। अत्र गत्यर्थाद् ध्रज धातोः ‘इजादिभ्यः’ पा०

३.३.१०८ वार्तिक इति इञ् प्रत्ययः । |

५.(रं©) गत्यै-द०। रहि गतौ, भ्वादिः ।

६. व्यथ भयसंचलनयोः, लेट् लकार।

७. प्र-यु मिश्रणामिश्रणयोः । प्रयुतं पृथक

उदबोधन – रामनाथ विद्यालंकार

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