प्रतिवर्ष आर्यसमाज की शिक्षण संस्थाओं आर्य स्कूलों, कॉलेजों, डी.ए.वी. विद्यालयों से बीसियों शिक्षक प्रिंसिपल रिटायर होते हैं। सर्विस में रहते हुए समाजों व सभाओं के पदों से चिपक जाते हैं। रिटायर होने पर कभी साप्ताहिक सत्संग में इनको नहीं देखा जाता। ऐसा क्यों? यह चर्चा कहीं एक सम्मेलन में कुछ भाई कर रहे थे। मुझे देखकर पूछा- ‘ऐसा क्यों होता है?’ मैंने कहा- ऐसे लोग अपने पेट के लिए, प्रतिष्ठा के लिये समाज में घुसते हैं। उनमें मिशन की अग्नि होती ही नहीं। अम्बाला में एक रामचन्द्र नाम के डी.ए.वी. के हैडमास्टर थे। मथुरा जन्म शताब्दी पर ‘आर्य गज़ट’ के विशेषाङ्क में महात्मा हंसराज, पं. भगवद्दत आदि के साथ उनका भी लेख छपा था। रिटायर होते ही मृतक-श्राद्ध पर लेख देकर सनातन धर्म के नेता बन गये। प्रिं. बहल प्रादेशिक सभा के प्रधान रहे। रिटायर होकर किसी ने चण्डीगढ़ में उनको आर्यसमाज मन्दिर के पास फटकते नहीं देखा। अब आर्यजगत् में और कुछ हो न हो, महात्मा आनन्द स्वामी जी पर तो सामग्री होती ही है। अध्यापक लोग महात्मा जी पर वही अपनी घिसी-पिटी सामग्री देते रहते हैं। प्रयोजन धर्म प्रचार नहीं, कुछ और है।
वैदिक धर्म पर विधर्मी वार करते रहते हैं। पुस्तक मेले पर ऐसा साहित्य खूब बंटा व बिका। इन मैडमों व प्रिंसिपलों ने कभी उत्तर दिया? श्रद्धाराम पर सरकार ने पुस्तक छापी। उसमें ऋषि पर जमकर प्रहार किया। परोपकारिणी सभा ने झट से उत्तर छपवा दिया। इन्होंने प्रसार में क्या सहयोग किया। ये तो दर्शनी हुण्डियाँ हैं। महात्मा आनन्द स्वामी जी पर इन्हीं के कहने से मैंने ‘आनन्द रसधारा’ पुस्तक समय से पहले लिखकर दे दी। श्री अजय जी ने छाप दी। महात्मा आनन्द स्वामी जी के इन दर्शनी भक्तों के लेखों में उस पुस्तक के हृदयस्पर्शी प्रसंग यथा ‘चरण स्पर्श प्रतियोगिता’ आदि कभी किसी ने पढ़ा क्या?