इन्दु की वाणी -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः अत्रिः । देवता वाक्। छन्दः आर्षी जगती ।
पुरुदस्मो विषुरूपऽइन्दुरन्तर्महिमानमानञ्ज धीरः। एकपदीं द्विपद त्रिपदीं चतुष्पदीमष्टापदीं भुवनानु प्रथन्तास्वाहा॥
-यजु० ८।३०
( पुरुदस्म:१) अतिशय दु:खक्षयकर्ता, (विषुरूपः ) विविध रूपों वाला, ( धीरः) धीर, बुद्धिमान् ( इन्दुः२) आनन्द से आर्द्र करनेवाले परमेश्वर ने ( अन्तः ) शरीर तथा ब्रह्माण्ड के अन्दर ( महिमानं ) महिमा को ( आनञ्ज ) प्रकट किया हुआ है। उसकी (एकपदीं ) ओम् रूप एक पदवाली, ( द्विपदीं ) अभ्युदय और निःश्रेयस इन दो पदोंवाली, (त्रिपदीं ) मन, बुद्धि, आत्मा इन तीन पदोंवाली, (चतुष्पदीं ) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पदोंवाली और ( अष्टापदीं ) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्षों तथा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास इन चार आश्रमों रूप आठ पदोंवाली (स्वाहा ) वाणी को ( भुवना) सब घर ( अनुप्रथन्ताम् ) अनुकूलरूप से विस्तीर्ण करें, फैलाएँ।
परमेश्वर का एक नाम ‘इन्दु’ भी है। उणादि कोष में इसे आर्द्र करनेवाली ‘उन्द्’ धातु से उ प्रत्यय तथा धातु के उ को इ करके निष्पन्न किया गया है। जो उपासकों को आनन्दवर्षा से आर्द्र करता है, वह परमात्मा ‘इन्दु’ कहलाता है। वह “पुरुदस्म’ है, बहुत अधिक दु:ख, दोष आदि का क्षय करनेवाला है। जो सच्चे भाव से दु:खदोषादि से छूटने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करता है, उसकी वे प्रभु सुनते हैं। वह ‘विषुरूप भी है, अर्थात् विविध रूपोंवाला है-सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता आदि अनन्त रूपोंवाला है। वह धीर अर्थात् धैर्यसम्पन्न तथा बुद्धिमान् (धीर) भी है। उस इन्दु ने शरीर में तथा ब्रह्माण्ड में सर्वत्र अपनी महिमा को प्रकट किया हुआ है। सृष्टि में जिधर भी दृष्टि डालो, उसी की महिमा दृष्टिगोचर होती है, क्योंकि चारों ओर जो अद्भुत सृष्टि की कला और छवि है। वह मनुष्यकृत तो हो नहीं सकती। जब उसकी सृष्टि इतनी महान् और अचरजभरी है, तब उसकी वेदवाणी क्यों न निराली होगी। उसका अध्ययन और मनन करने पर ज्ञात होता है कि सचमुच वह अति अभिनन्दनीय है। कहीं वह एकपदी है, कहीं द्विपदी है, कहीं त्रिपदी है, कहीं चतुष्पदी है, कहीं अष्टापदी है। ओम्, सत्यम्, शिवम्, स्वस्ति, नमः, स्वाहा आदि एकपदी वाक् है, जिसमें एक पद से वाक्यार्थ निकल आता है। एक परब्रह्म का वर्णन करने के कारण भी वह एकपदी है। कहीं वह द्विपदी है, अभ्युदय-नि:श्रेयस, ऋत-सत्य, आत्मोपकार-परोपकार, इन्द्र-अग्नि, मित्र-वरुण, व्यक्ति-समाज, गुरु-शिष्य आदि युगल विषयों का वर्णन करती है। कहीं वह त्रिपदी है, जहाँ ईश्वर-जीव-प्रकृति, मन बुद्धि-आत्मा आदि त्रैत का वर्णन करती है। कहीं वह चतुष्पदी है, जहाँ धर्म अर्थ-काम-मोक्ष इन चार विषयों की चर्चा है। कहीं वह अष्टापदी है, जहाँ समाज के चार वर्षों तथा चार आश्रमों का प्रतिपादन करती है। चार आश्रमों की चर्चा मनुप्रोक्त नामों से न होकर अन्य नामों से भी हो सकती है, जैसे वानप्रस्थ का उल्लेख मुनि नाम से और संन्यासी का वर्णन यति नाम से मिलता है। ऐसे-ऐसे महत्त्वपूर्ण विषयों का जिस इन्दु को वाणी में वर्णन है, उसका विस्तार, प्रसार, प्रचार सकल गृहों के निवासियों को करना चाहिए। बड़े-बड़े नास्तिक लोग भी ईश्वरकृत किसी घटनाचक्र को देख कर आस्तिक बन गये, बड़े बड़े नास्तिकता का दम भरनेवाले लोगों ने अन्त समय में परमात्मा का स्मरण करके आँखें मूंदीं।
अतः आओ हम भी ‘इन्दु’ प्रभु का गुणगान करें, उसकी वेदवाणी का प्रचार-प्रसार करें और उसने हमें उन्नति के लिए नर-तन दिया है, उसके लिए उसके कृतज्ञ हों।
पाद-टिप्पणियाँ
१. पुरु बहु दु:खदोषादीन् दस्यति उपक्षयति स पुरुदस्मः। पुरु-दसु | उपक्षये-मक् प्रत्यय ।
२. उनत्ति आर्मीकरोति आनन्दवर्षाभिः भक्तजनान् यः स इन्दुः । ‘इन्देरुच्चउ० १.१२ से उ प्रत्यय और धातु के इ को उ।
३. अजू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु, लिट् ।
इन्दु की वाणी -रामनाथ विद्यालंकार