श्री कृष्ण गीता में कर्म के रूप बताते है एक स्वार्थ, दूसरा यशार्थ । उनकी रष्टि में स्वार्थ कर्म बन्धन का हेतु है और यक्षार्थ कर्म मोक्ष का।
यज्ञ का अर्थ हम पीछे स्पष्ट कर चुके हैं । जो कर्म व्यक्ति गत लाभ के लक्ष्य से किया जाता है, वह स्वार्थ है, और जो समष्टि के कल्याणार्थ किया जाता है, वह यज्ञार्थ है ।
समष्टि में व्यष्टि सम्मिलित है। व्यक्तियों से जातियां बनती हैं । जातियों के उत्थान से व्यक्तियां वञ्चित नहीं रहती। स्वार्थ सिद्धि यज्ञार्थ से स्वतः होती है। वस्तुतः स्वार्थ और यशार्थ में भेद नहीं । संकल्प भेद तो है परन्तु क्रिया एक ही है।
कोई रोटी खाता है इस लिये कि में मोटा होजाऊ, कोई मोटा होता है इस लिये कि मैं जाति की रक्षा करूं । पहला • स्वार्थी है, दूसरा यज्ञार्थी है।
यथार्थ स्वार्थ यज्ञार्थ है । मनुष्य समाज की रचना ऐसी है कि जातियों के उठाए बिना व्यक्तियां उठ नहीं सकतीं । एक आङ्गल व्यक्ति का संसार भर में वही अधिकार है जो उसके उसके देश ने अपने गौरव से प्राप्त किए हैं । भारतवासियोंका भारत दण्डपद्धति अमरीका में भी पीछा नहीं छोड़ती । गोखले को तुम नीतिश कहो, बुद्धि निधि कहो, दक्षिण अफ्रीका में में कुलियों का राजा कहाता है। व्यक्तिगत आचार को कौन पूछता है । अन्य देशों में भारतीय भारतीय होने के कारण undesirable अशुभ हैं । रवीन्द्र जगत् भर के बड़े कवि हैं। पूर्व पश्चिम में पूजे जाते हैं । परन्तु किसी स्वाधीन जाति के महा कवि की तरह गर्दन सीधी करके नहीं चल सकते । कोई लखपति हो । देश दरिद्र है, तो उसका धन भी अपने देशवासियों के ही परिमाण के अनुसार प्रचुर होगा। उन देशों के धनपतियों का सान्मुख्य यह नहीं कर सकता जहां सामान्य जनता लाखों में लेटती है।
मूखों में विद्वान् विद्वान् न रहेगा। विद्या की वृद्धि विद्या प्रचार से होता है । धन की तरह यह सम्पत्ति प्रयोग से बढ़ती है। भारत को धन धान्य से दरिद्र किसने किया । कृपणता ने। भारत का गुण ज्ञान क्यों धूलि धूसरित हुआ । कृपणता से । अपना कौशल लोगों से जितना छिपाओगे, उतना तुम से छिपेगा। वैभव विभु है। खुली हवा में बढ़ता फूलता है। संकुचित स्थान में इस का दम घुटता है।
परमात्मा सब के हैं, तू सब का हो। भक्त कहते हैं, अपने जीवन को डोर प्रभु के हाथ में दे । और स्वयं अपने इष्ट, अनिष्ट से निश्चिन्त हो जा। क्या इसका यह अर्थ है ? स्वयं धनोपार्जन छोड़ दे। तुझे परमात्मा धन देंगे? रोटी न खा न पका, परमात्मा तेरी रोटी खा छोड़ेंगे।
परमात्मा स्वयं सजग है, और सजगों का ही साथ देते हैं । अन्धों को लाठियां परमात्मा ग्रहण नहीं करते। परमात्मा
की इच्छा का जो मार्ग है वही शुभ है। किसी मनोरथ से, किसी उद्देश्य से संसार का यज्ञ सम्पादित होता है । मनुष्य का कल्याण इसमें है कि उस मनोरथ को जाने, उस उद्देश्य को स परमात्मा के मन्त्रोच्चारण के साथ २ अपना मन्त्रोच्चारण करे, उनकी स्वाहा पर अपनी तन मन की आहुति डाले। एक २ आहुति पर ‘इदन्नमम‘ कहे । अर्थात् यह आहुति मेरे अपने लिये नहीं है । ‘इदमग्नये, इदं सोमाय‘ का अर्थ परमात्मार्पणहै। परन्तु ‘अग्नये‘ कहनेका यह अर्थ नहीं कि ‘अग्नि‘को उत्तरदाता बना कर स्वयं उत्तरदातृत्व से मुक्त हो जाए । जीवों के संपाद्य कार्य जीवों को करने हैं। परमात्मा उनका स्थान नहींलेने । हां! परमात्मा की आज्ञा समझ कर अग्नि की ज्वाला को देख कर डाली हुई आहुति सफल होती है।
परमात्मा का नाम लेने से जहां स्वार्थ वृत्ति का नाश होता है, वहां यज्ञार्थ वृत्ति आजानी चाहिये । स्वार्थी को अपनी चिन्ता है, यज्ञार्थी को सारे ब्रह्मांड की। यह न हो कि अपनी चिन्ता भी छोड़ बैठो और ब्रह्मांड की भी चिन्ता न करो।
स्वामी दयानन्द ‘इदन्न मम‘ का यथार्थ अर्थ समझे हैं । आर्य समाज के पहले पांच नियम स्वार्थ के लक्ष से हैं, तो अन्तिम पांच यशार्थ के लक्ष के हैं।
यथा–नियम ६. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्योद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
नियम ७. सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार वर्तना चाहिए।
नियम ८. अविद्या का नाश विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
नियम ६. प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट न रहना चाहिये, किन्तु सक की उन्नति में अपनी उन्नति सम झनी चाहिये।
इससे और स्पष्ट सामाजिक सिद्धान्त क्या हो। लोग स्वार्थ छुड़वाते हैं। स्वार्थ छूटता नहीं। स्वामी यज्ञार्थ को यथार्थ स्वार्थ बताता है। यही अर्थ ‘इदन्न मम‘ का है। अर्थात् यह आहुति एक मेरी नहीं, सब की है, और सब में मेरी है।
ममता और अहंकार के शत्रु संसार भर में विद्यमान हैं। क्या समाचार पत्रों और क्या व्याख्यान–वेदिकाओं सब में इसी तुरी का नाद है कि ममता छोड़ो, अहंकार का बीज न रखो । तथ्य यह है, श्रोता तो श्रोता लेखक तथा वक्ता भी तो ममता और अहंकार के अवतार हैं।
ममता नहीं छूट सकती, अहंकार का नाश नहीं हो सकता, पर बढ़ाने की वस्तु है । विशाल मम अपवाद के योग्य मम नहीं रहती। संकुचित अहम् मोह है, अभिमान है । विस्तृत
अहम् बैराग्य, है, नम्रमा है। परमात्मा के संकल्प को जान कर जब अपना संकल्प उस के अनुकूल कर दिया, जब अपनी आहुति उस की स्वाहा सुन कर स्वाहा को, तो फिर ‘इद. मग्नये‘ और ‘इदं मह्यम्‘ में भेद न रहा।
समूह में अपने आप को मिला देना अपना और समूह दोनों का भला करना है। समिति को अपनी सुयोग्य सम्मति देना समिति का हित करना है। जाति से अपना अभाव करना जाति को जहां तक अपने जीवन का सम्बन्ध है उतना मृत करना है । सब व्यक्तियां अपने आप को जाति से अलग कर दें तो जाति न रहे । परन्तु सम्मति देकर उस पर हठ करना, दूसरों के युक्त मत को भी लताड़ कर अपने यज्ञ को जय चाहना संकुचित ममता है। स्वामी जी कहते हैं
नि० १०–सब मनुष्यों को सामाजिक सर्व हितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।
___ यही सिद्धान्त एकता प्राण है ।। सर्व हितकारी नियमों में व्यक्तियों की पारस्परिक परतन्त्रता सामाजिक तथा जातीय स्वतन्त्रता है। तभी तो एक २ आहुति पर “इदन्न मम” “इदन्न मम” कह कर यज्ञ को समूहसात् बनाया जाता है व्यक्तिसात् नहीं।