आत्मा सूर्य, मन सोम
ऋषिः अगस्त्यः । देवता सविता सोमश्च । छन्दः क. साम्नी बृहती, र, निवृद् आर्षी पङ्किः।
देव सवितरेष ते सोमस्तरक्षस्व मा त्वा दभन् ‘एतत्त्वं देव सोम देवो दे॒वाँ२ ।।ऽउपांगाऽइदमहं मनुष्यान्त्सह रायस्पोषेण स्वाहा निर्वरुणस्य पाशोन्मुच्ये
-यजु० ५। ३९
(देव सवितः) हे प्रकाशमान जीवात्मारूप सूर्य ! ( एषः ते सोमः ) यह तेरा मन रूप चन्द्रमा है, ( तं रक्षस्व ) उसकी रक्षा कर। ( मा त्वा दभन्’ ) कोई भी शत्रु तुझे दबा न पायें । ( एतत् त्वं ) यह तू ( देव सोम ) हे दिव्य मन रूप चन्द्र ! ( देवः) जगमग करता हुआ ( देवान्) प्रजाजनों को ( उपागाः ) प्राप्त हुआ है। आगे मन रूप सोम कहता है-( इदम् अहम् ) यह मैं मन रूप सोम ( मनुष्यान्) मनुष्यों को ( रायस्पोषेण सह) ऐश्वर्य की पुष्टि के साथ [प्राप्त होता हूँ] । ( स्वाहा ) मेरा स्वागत हो। मैं (वरुणस्यपाशात् ) वरुण के पाश से ( निर् मुच्ये ) निर्मुक्त होता हूँ, छूटता हूँ।
जैसे बाहर प्रकाशमान सविता सूर्य अन्तरिक्षस्थ चन्द्ररूप सोम को प्रकाशित करता है, वैसे ही हमारे शरीर के अन्दर आत्मा-रूप सूर्य मन-रूप चन्द्र को प्रकाशित करता है। मन्त्र में सविता नाम से जीवात्मा-रूप सूर्य को सम्बोधन करके कहा गया है कि जो तुम्हारा मन-रूप चन्द्र है, उसकी सदा रक्षा करते रहना । कहाबत है कि मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण होता है। जीवात्मा यदि मन-रूप चन्द्र को प्रकाशित करता रहेगा, तो वह सही रास्ते पर चलेगा और परीक्षाएँ शिष्यों की लिया करें, जिससे उन्हें शिष्यों की प्रगति और योग्यता का ज्ञान होता रहे तथा शिष्य भी पाठ में अपनी दुर्बलता या सबलता जानकर तदनुसार पाठ की तैयारी में ध्यान दिया करें।
मन्त्र के उत्तरार्ध में गुरुकुल में बालक से मिलने तथा अध्ययन में उसकी प्रगति जानने के लिए आये हुए माता-पिता घर लौटते समय बालक को कह रहे हैं। हे बालक! तू यम नियमों से या संस्था के नियमों-उपनियमों से जकड़ा हुआ है, इस बात का सदा ध्यान रखना। गुरुकुल में तू केवल विद्याध्ययन के लिए नहीं आया है, अपितु चरित्रनिर्माण भी तेरे गुरुकुल प्रवेश का उद्देश्य है। अतः गुरुकुल के किसी नियम की अवहेलना मत करना। हम तुझे विद्वान् गुरुओं को सौंप चुके हैं। अब वे ही तेरे विद्याप्रदाता, आचारनिर्माता और सर्वहितकर्ता हैं। अब वे ही तेरे माता-पिता भी हैं। हम तो तुम्हारे आचार्यों से स्वीकृति लेकर कभी-कभी ही तुम्हारी अध्ययन, व्यायाम, व्रतपालन में प्रगति देखने के लिए तुम्हारे पास आ सकते हैं। इस गुरुकुल को ही अपना घर समझो। यह भी ध्यान रखो कि सभी वेदों, आर्ष शास्त्रों, दिव्य गुणों एवं दिव्य व्रतों की प्राप्ति के लिए हमने तुम्हें गुरुकुल में भेजा है। अत: दत्रचित्त होकर सभी विद्याओं का अध्ययन एवं व्रतों का पालन करते हुए तुम विद्यास्नातक एवं व्रतस्नातक बनकर समावर्तन संस्कार के पश्चात् हमारे पास घर आओगे।
पाद–टिप्पणियाँ
१. आगत=आगच्छत, छान्दस रूप ।
२. शृणुता= शृणुत, छान्दस दीर्घ ।
३. (उपयामगृहीतः) अध्यापननियमै: स्वीकृतः ७.३३–द० ।
४. योनिः =गृह, निघं० ३.४।।
५. द्रष्टव्य, ऋ० ४.३.७ द०भा० का भावार्थ- अध्यापक लोगों को विद्यार्थियों को पढ़ा के प्रत्येक अठवाडे, प्रत्येक पक्ष, प्रतिमास, प्रति छमाही और प्रति वर्ष परीक्षा यथायोग्य करनी चाहिए।
आत्मा सूर्य, मन सोम