आत्मा और मन के जीते जीत -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः बृहस्पतिः । देवता बृहस्पतिः इन्द्रश्च । छन्दः आर्षी जगती ।
बृहस्पते वाजं जय बृहस्पतये वाचे वदत बृहस्पतिं वाजे जापयत। इन्द्र वाजे जयेन्द्राय वाचे वदतेन्द्रं वाजे जापयत ।।
-यजु० ९ । ११
( बृहस्पते ) हे महान् शक्ति के स्वामी जीवात्मन्! तू ( वाजं जय ) देवासुरसंग्राम को जीत । ( बृहस्पतये ) महाशक्ति के स्वामी जीवात्मा के लिए ( वाचे वदत ) उद्बोधन की वाणी बोलो। ( बृहस्पतिम् ) महाशक्ति के स्वामी जीवात्मा को ( वाजं ) संग्राम (जापयत ) जितवाओ। ( इन्द्र ) हे परमैश्वर्यवान् मन ! तू ( वाजं जय ) संग्राम को जीत। ( इन्द्राय ) परमैश्वर्यवान् मन के लिए (वाचं वदत ) उद्बोधन की वाणी बोलो। (इन्द्रं ) परमैश्वर्यवान् मन को ( वाजं ) संग्राम ( जापयत ) जितवाओ।।
हे मेरे आत्मन् ! तू बृहती शक्ति का अधिपति होने के कारण ‘बृहस्पति’ कहलाता है। तेरे अन्दर अपार बल निहित है। उस बल से तू अपने अन्दर होनेवाले देवासुरसंग्राम पर विजय प्राप्त कर । जब भी तू किसी व्रत की दीक्षा लेना चाहता है या कोई पुण्य कार्य करना चाहता है, तभी आसुरी वृत्तियाँ आकर तुझे उस व्रत से तथा उस पुण्य कार्य से रोकना चाहती हैं। उन आसुरी वृत्तियों के वश में तू मत हो। अन्दर के समान बाहर भी तुझे देवासुरसंग्राम लड़ना पड़ता है। आसुर वृत्ति के पामर लोग श्रेष्ठ मार्ग पर चलनेवाले तुझे भटका कर उस मार्ग से विचलित करना चाहते हैं। परन्तु उनके प्रभाव में न आकर तू अपनी सात्त्विक वृत्ति के साथ श्रेष्ठ मार्ग पर चलने का आदर्श स्थापित करता रह ।।
हे मनुष्यो ! जब कभी तुम्हें कोई पाशविक वृत्ति उद्विग्न करने लगे, तुम्हारी ऊर्ध्व यात्रा में कोई विघ्न आकर अवरोध उपस्थित करने लगे, कोई शत्रु आकर तुम्हें ऊपर से नीचे गिराने लगे, तब तुम अपने बृहस्पति’ आत्मा को उद्बोधन दो, उसे जागृत करो। उसे उद्बोधन देकर उससे संग्राम जितवाओ। यदि तुम समझते हो कि चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों से तुम संग्राम जीत लोगे, तो यह तुम्हारी भूल है। ये इन्द्रियाँ तो विषयों की ओर प्रवृत्त होकर संग्रामों में तुम्हारी पराजय करानेवाली सिद्ध होती हैं। आत्मा ही है, जो निर्भीक, निश्चल होकर शत्रुओं से लोहा लेता है।
हे मेरे ‘इन्द्र’! हे मेरे परमैश्वर्यवान् मन! तू अपने सङ्कल्प बल से देवासुरसंग्राम को जीत । हे मानवो ! जब भी तुम्हें कभी विपदा आती दिखायी दे, शत्रुओं की टोली तुम्हें लीलने के लिए आगे बढ़ती दृष्टिगोचर हो, तब तुम अपने मन को उद्बोधन दो, मन को जागृत एवं प्रबुद्ध करो, उससे देवासुरसंग्राम जितवाओ। मत भूलो ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’ । आओ, हम सभी अपने आत्मा और मन को प्रबुद्ध करके देवासुरसंग्रामों में विजय प्राप्त करें।
पाद-टिप्पणियाँ
१. बृहत्या: महत्याः शक्तेः पतिः बृहस्पतिः । बृहत्-पति। त् का लोपऔर सुट्स् का आगम। ‘तबृहतोः करपत्योश्चोरदेवतयोः सुट् तलोपश्च’, वार्तिक, पा० ६.१.१५७
२. जापयत, जि जये, णिच्, लोट् ।
३. यन्मन: स इन्द्रः । गो० उ० ४.११
आत्मा और मन के जीते जीत -रामनाथ विद्यालंकार