वही ऋष्युद्यान है, वही बगीचे, वही पक्षियों की चहचहाहट…
वही गगनचुंबी यज्ञशाला, वही सवेरा, वही वेद मन्त्रों की ध्वनियाँ…
वही रास्ते हैं और रास्तों पर चलने वाले भी।
वही हवाओं के झोंके, वही पेड़ों की सरसराहट और मन्द-मन्द खुशबुएँ……पर न जाने क्यूँ ये नीरस से हो गये हैं।
वही कतार में खड़े भवन कि जैसे मजबूर हैं स्थिर रहने को।
और आनासागर भी शान्त… कि जैसे रूठ गया हो और कह रहा हो कि वो आवाज कहाँ है?
जिसकी तरंग मुझमें उमंग लाती थी।
आह! सब कुछ तो वही है पर कोई है…..जो अब नहीं है।
– सोमेश पाठक