अस्त्र शस्त्र को रक्षक बना, भक्षक नहीं -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः परमेष्ठी कुत्सो वा। देवता रुद्रः । छन्दः विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।
यामिषु गिरिशन्त हस्ते बिभर्व्यस्तवे शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिंसीः पुरुषं जगत् ॥
-यजु० १६ । ३
( याम् इषुम् ) जिस बाण को, जिस अस्त्र-शस्त्र को (गिरिशन्त ) हे उच्च पद पर स्थित होकर शान्ति का विस्तार करनेवाले नायक! तू ( अस्तवे ) शत्रु पर छोड़ने के लिए ( हस्ते बिभर्षि ) हाथ में धारण किये है ( ताम् ) उस बाण या अस्त्र-शस्त्र को (गिरित्र ) हे पर्वत पर स्थित होकर रक्षा करनेवाले ! तू ( शिवां कुरु ) शिव बना। (माहिंसीः ) मते हिंसा कर ( पुरुषं ) पुरुषों की, और ( जगत् ) जगत् की।
इस मन्त्र का देवता ‘रुद्र’ है। रुद्र से यहाँ सेनापति का ग्रहण है। सेनापति के दो कार्य होते हैं, प्रथम शत्रुओं पर बाणवर्षा करके उन्हें रुलाना, द्वितीय स्वपक्ष के वीरों के रोदन, हाहाकार आदि को दूर करना । रुद्र को यहाँ ‘गिरिशन्त’ और ‘गिरित्र’ दो विशेषणों से स्मरण किया गया है। भाष्यकार उवट की व्याख्यानुसार रुद्र गिरिशन्त’ इस कारण है कि वह कैलास गिरि पर अवस्थित होकर सुख का विस्तार करता है, और उसे ‘गिरित्र’ इस हेतु से कहा गया है कि वह कैलास पर्वत पर स्थित होकर अपने भक्तों का त्राण करता है। परन्तु सेनापति तो कैलास पर्वत पर रहता नहीं है। युद्ध करने के लिए ऊँचाई पर स्थित होकर शत्रुओं पर बाण आदि की वर्षा करना सुविधाजनक होता है, अत: किसी भी पर्वत पर स्थित होकर शत्रुओं पर अस्त्रों की वर्षा करके उन पर विजय प्राप्त कर स्वपक्ष को सुख देता है और पहाड़ पर चढ़ कर स्वपक्ष का त्राण करता है, इस कारण सेनापति को ‘गिरिशन्त’ और “गिरित्र’ कहा गया है।
रुद्र सेनापति को सम्बोधन करके कहा है कि जिस बाण को छोड़ने के लिए तूने हाथ में पकड़ा हुआ है, उसे शिव बना। युद्ध में काम आनेवाले बाण सभी अस्त्रों के प्रतीक हैं। तात्पर्य यह है कि हमने शत्रु से लड़ने के लिए जो अस्त्र शस्त्र सुसज्जित कर रखे हैं, उनसे तू जगत् का संहार न करके जगत् की रक्षा कर । युद्ध का उद्देश्य यह नहीं है कि सबको धराशायी करके भूमि को जनशून्य कर दिया जाए। वैदिक सेनापति का कर्तव्य यह है कि हत्या कम से कम शत्रुओं की हो और विजय प्राप्त हो जाए। शत्रु हमारा लोहा मानकर हमसे सन्धि कर ले, हमारे राष्ट्र में सम्मिलित हो जाए और हमारी सर्व जगत् को सुखी रखने की नीति का पालन करने लग जाए।” मा हिंसी: पुरुषं जगत्’, पुरुषों का और जगत् का संहार मत कर।” इस वैदिक उद्बोधन में विश्वशान्ति का दूरदर्शितापूर्ण सूत्र छिपा हुआ है। जगत् का संहार लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य है शान्ति का साम्राज्य । युद्ध तो शत्रु को राह पर लाने के लिए एक विवशता है। युद्ध टाला जा सके तो और भी अच्छा है।
पाद-टिप्पणियाँ
१. असु क्षेपणे, तुमर्थ में तवेन् प्रत्यय ।
२. रोदयति शत्रूनिति रुद्रः, यद्वा स्ववीराणां रुतः रोदनपीडाहाहाकारादीन् द्रावयतीति रुद्रः ।।
३. गिरी पर्वते ऽ वस्थित: कैलासाख्ये शं सुखं तनोतीति गिरिशन्तःउवट।
४. गिरौ कैलासाख्ये ऽ वस्थितः त्रायते भक्तानिति गिरित्रः-उवट ।
५. गिरौ पर्वते ऽ वस्थितः स्वपक्षस्य शं सुखं तनोतीति गिरिशन्तः । गिरौ।पर्वते ऽ वस्थितः स्वपक्षं त्रायते इति गिरित्रः ।
अस्त्र शस्त्र को रक्षक बना, भक्षक नहीं -रामनाथ विद्यालंकार