अष्टाङ्गयोग का ढूध -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः वसिष्ठः । देवता यज्ञ: । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।।
यज्ञस्य दोहो विर्ततः पुरुत्रा सोऽअष्टधा दिवमन्वाततान। य यज्ञ धुक्ष्व महिं मे प्रजायाश्चरायस्पोषं विश्वमायुरशीय स्वाहा।
-यजु० ८ । ६२
( यज्ञस्य ) योग-यज्ञ का ( दोहः ) दूध ( पुरुत्रा ) बहुत स्थानों में ( विततः ) फैला हुआ है । (सः ) वह यज्ञ ( अष्टधा ) यम, नियम आदि आठ योगाङ्गों के खम्भों पर (दिवं ) आत्मा रूप द्युलोक का ( अन्वाततान) तम्बू तानता है। ( नः यज्ञ ) वह तू हे योगयज्ञ ( मे प्रजायां ) मेरी प्रजा में ( महि रायस्पोषं ) महान् योगैश्वर्य की पुष्टि को ( धुक्ष्व ) दोहन कर। मैं योगबल से ( विश्वम् आयुः ) सम्पूर्ण आयु ( अशीय) प्राप्त करूं। (स्वाहा ) योग-यज्ञ में मेरी आहुति है।
क्या तुम ऐसे यज्ञ को जानते हो, जो दूध देता है, अनेक स्थानों पर जिसकी शालाएँ दूध बाँटने के लिए खुली हुई हैं। और जो आठ खम्भों पर द्युलोक का तम्बू तानता है? यह यज्ञ योग-यज्ञ है, जिसमें सब चित्तवृत्तियों का अभ्यास और वैराग्य के द्वारा अथवा ईश्वरप्रणिधान के द्वारा निरोध करके, मार्ग में आनेवाले चित्तविक्षेपरूप अन्तरायों (विघ्नों) का प्रतिषेध करके समाधि प्राप्त की जाती है, अध्यात्मप्रसाद मिलता है, जिसमें ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय होता है। ईश्वर के स्वरूप का साक्षात्कार, आनन्द और शान्ति ही उस योग-यज्ञ का दूध है। देश-विदेश में जहाँ-जहाँ भी योग के शिविर लगते हैं और योगसाधना होती है, वहाँ-वहाँ वह दूध बँटे रहा है। आगे मन्त्र कहता है कि वह यज्ञ आठ प्रकार से या आठ साधनों से द्युलोक का तम्बू तानता है। योग-यज्ञ के आठ अङ्ग होते हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। अध्यात्म में शरीर पृथिवी है, मन अन्तरिक्ष है और आत्मा द्यलोक है। अतः द्यलोक का तम्ब तानने का अभिप्राय है आत्मा की ऋद्धि-सिद्धि को फैलाना । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहे ये पाँच यम कहलाते हैं। जो अहिंसा को अपने अन्दर प्रतिष्ठित कर लेता है, उसके प्रति सब प्राणी वैर को त्याग देते हैं। सत्य प्रतिष्ठित कर लेने पर योगी जो आशीर्वाद देता है, वह सत्य सिद्ध हो जाता है। अस्तेय की प्रतिष्ठा से वह सब रत्नों की प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है। ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा से वीर्यलाभ होता है। अपरिग्रह की स्थिरता से पूर्व जन्म की बातें याद आ जाती हैं। शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान ये पाँच नियम हैं। शौच से शरीर इन्द्रियाँ, मन आदि सर्वथा शुद्ध रहते हैं। सन्तोष से सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति होती है। तप से अशुद्धिक्षय होकर शरीर, इन्द्रियों और मन की अणिमा, लघिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। स्वाध्याय से अभीष्ट विषय का ज्ञान होता है। ईश्वरप्रणिधान से समाधि सिद्ध होती है। चिरकाल तक जिससे सुखपूर्वक बैठ सके वह आसन कहलाता है, उससे सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्व नहीं सताते । प्राणायाम से प्रकाशावरण का क्षय होता है और धारणाओं में मन की योग्यता हो जाती है। इन्द्रियों का बाह्य विषयों से हटाना प्रत्याहार कहाता है। उससे इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं। चित्त का किसी देश-विशेष में लगाये रखना धारणा कहलाती है। चित्त को जिस विषय में लगाना हो चिरकाल तक उसमें लगाये रखना ध्यान कहलाता है। समाधि में चित्त निर्विषय हो जाता है, उससे आनन्द की अनुभूति तथा ईश्वर-साक्षात्कार होता है। इस प्रकार योगयज्ञ अष्टाङ्गों द्वारा आत्मा को आध्यात्मिक सुख प्रदान करता है। मन्त्र के अन्तिम भाग में कहा गया है कि योगयज्ञ द्वारा प्रजाओं में योगैश्वर्य की पुष्टि होती है तथा पूर्ण आयु प्राप्त हो सकती है। ये सब अष्टाङ्गयोग के दूध हैं। आइये, हम भी अष्टाङ्गयोग की उपासना करके उसके दूध का पान करने का सौभाग्य प्राप्त करें।
अष्टाङ्गयोग का ढूध -रामनाथ विद्यालंकार