पराभवस्य हैतन्मुखं यदतिमानः – शतपथ ब्राह्मण ५.१.१.१
अभिमान ही पराजय का मुख है।
आजकल हम अपने आसपास अभिमान से भरे लोग देख रहे है। किसी को जाति का अभिमान है तो किसी को पैसो का। किसी को बोडी का अभिमान् है तो किसी को पूर्वजो का।
जिसने जबजब अभिमान् किया है तबतब वह ही नष्ट हुआ है।
शतपथकार इसे समझाते हुए कहते है की देवता और असुरोमें लडाई हो गयी।
दोनों सोचने लगे की कहां आहूति दे।
असुर अभिमान् के कारण अपने ही मुखमें आहूति देने लगे अर्थात् सब कुछ खुद को लिए ही करने लगे।
देवता एकदूसरे को आहूति देने लगे। उनहें सर्वस्व प्राप्त हो गया।
यह कथामें बहुत गहरा संदेश है। जिस परिवारमें लोग अपने ही बारेमें सोचते है, वह परिवारमे असुर रहते है।
और जो परिवारमें पहले दूसरो के बारेमें सोचा जाता है, वह परिवारमें देव बसते है।
भाई अपने बारेमें ना सोचकर अपने भाई के बारेमें सोचता है, वह सर्वस्व प्राप्त करलेता है।
जिस परिवारमें अपने से पहले दूसरों का विचार किया जाता है, वह सर्वस्व प्राप्त कर लेता है।
इसी लिए अभिमान् से दूर रहो और दूसरो को बारेमें सोचो।
विशेष हवन तथा संस्कार आदि करने से पहले एक य तीन दिन पहले से व्रत रखते हैं
जब व्रत रखे तो क्या व्रत मे खा सकते हैं?
उत्तर-देवो को खिलाने से पहले नही खाना चाहिए देव यज्ञ के माध्यम से खाते हैं। हवन उन्ही पदार्थो से करना चाहिए जो खाने योग्य हों जैसे मेवा जौ चावल खीर आदि।
तो जिन पदार्थो से हवन करे उन्हे नही खा सकते हैं क्योंकि पहले देव खायेंगे।
जिनका हवन मे प्रयोग न हो उनको खा सकते हैं
और उतना खाना चाहिए जिससे न खाने मे गणना हो सके।
व्रत मे वन मे उपजी हुई चीज खानी चाहिए औषधि य वनस्पति।
व्रत रखने के दूसरे दिन यज्ञ की जब तैयारी करते हैं तो पहले जल को लाकर वेदी के पास रखते हैं