अन्त भला सो भला:- -प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

पूज्यपाद स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज एक उपदेश देते हुए एक अत्यन्त प्रेरक दृष्टान्त सुनाया करते थे। जिसका शीर्षक या सार था- ‘‘अन्त भला सो भला।’’ श्री पं. ओमप्रकाश जी वर्मा तथा इन पंक्तियों का लेखक प्राय: यह दृष्टान्त सुनाते रहे हैं। आज यहाँ इस दृष्टान्त को तो हम नहीं देंगे। उसके सार पर कुछ निवेदन करेंगे। हमने कई लडक़ों को, युवकों को व बोगस लीडरों को बड़ी-बड़ी डींगें मारते देखा । जिनको ‘आर्य राष्ट्र’ की डुगडुगी बजाते देखा वे भिन्न-भिन्न पार्टियों की परिक्रमा करने वाले दलबदलू निकले। हरियाणा के ओर-छोर लाल-लाल पगडिय़ाँ पहने, दाढ़ीधारी दर्जनों जीवनदानी देखे। ऋ षि दयानन्द के नाम की, उसके मिशन की रट लगाने वाले वे सब जीवनदानी कहाँ गये? आर्यसमाज पर वार-प्रहार हो तो हमने उस समय के और उस परम्परा के किसी जीवनदानी को कभी भी उत्तर देते नहीं देखा। हरियाणा में ही रामपाल ने महर्षि दयानन्द के विरुद्ध विषवमन करते हुये उत्पात मचाया। आचार्य बलदेव मैदान में उतरे। कई एक ने बलिदान दिया। वे जीवनदानी मौन रहे या दिखाई ही नहीं दिये।

डॉ. सुरेन्द्र जी, मान्य डॉ. धर्मवीर जी ने तथा इस लेखक ने लेखनी चलाकर उस उत्पाती को चुनौती दी। रामपाल की करतूतों पर एक विशेषाङ्क हरियाणा से छपा था। उसमें कई सज्जनों के लेख थे। हम तीनों के दो-दो लेख उस विशेषाङ्क में छापे गये। रामपाल को आर्यसमाज हिसार के नेता श्री हरिसिंह जी की प्रेरणा से परोपकारी में शास्त्रार्थ की हमने खुली चुनौती दी। कहाँ थे तब ये जीवनदानी?

सत्यार्थप्रकाश पर दिल्ली में विधर्मियों ने अभियोग चलाया। हमने कोर्ट में किसी जीवनदानी के दर्शन तब नहीं किये। अन्त भला सो भला। घुसपैठ करके यहाँ-वहाँ राजनीतिक उल्लू सीधा करने वाले घुसपैठिये बहुत देखे। मिशन की आग लेकर पं. शान्तिप्रकाश जैसे प्राणवीर क्यों दिखाई नहीं देते।

कोरबा से एक आर्य भाई ने हमारे एक पुराने लेख का सन्दर्भ देकर नरेन्द्रभूषण के बारे में कुछ पूछा। हमने उन्हें लिखा, भाई! क्या बतायें अन्त भला सो भला। हमारी कोमल भावनाओं का, हमारी दुर्बलता का शोषण करके वह वाणी व लेखनी का जादूगर हमें ठगता रहा। सत्यार्थप्रकाश के प्रकाशन के लिये उसे हमारे प्रधान डॉ. ओमप्रकाश जी ने धन भेजा। हमने उसे लिखा कि उनके पिता जी के नाम पर इसे छापा जावे। उसने पाँच-सात प्रतियों पर उनका फोटो व नाम देकर ग्रन्थ छापा। बिक्री का धन कहाँ गया? ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, श्रीकृष्ण, ऋषि जीवन, ऋषि के लघु ग्रन्थों के लिये धन दिया। चारों वेद संहिताओं के लिये धन दिया। गुरुकुल की स्थापना केरल में की। वहीं बैंक में स्थिर निधि रख दी। हमारे यहाँ के दो व्यक्तियों के आप ही हस्ताक्षर करके (हमें पता ही न दिया) सारा धन उसके पुत्र व पत्नी ने बैंक से निकलवाकर हड़प लिया।

हमारा महर्षि दयानन्द भवन (प्रान्तीय कार्यालय) उसके जीतेजी उसके पुत्र व पत्नी ने हड़प लिया। कई बार कई एक को चैक दिये जो बैंक से……….ऐसी धोखाधड़ी! इन दुष्कर्मों का फल उसने भोगा, उसका पुत्र व पत्नी भी भोग रहे हैं, भोगेंगे। एक बार त्रिशूर में कर्नाटक की सभा ने एक कार्यक्रम का आयोजन किया। श्री डॉ. हरिशचन्द्र जी भी वहाँ गये थे। हमें तो बाद में पता चला कि ये बाप-बेटे भी वहाँ गये। इन्होंने वहाँ भी करतूत कर के रंग में भंग डाला। सज्जनो! अन्त भला सो भला। परमात्मा जीवन के अन्तिम श्वास तक हमें पाप कर्मों से बचायें। हमारा पतन ऐसा न हो जो नरेन्द्र भूषण के परिवार का हुआ।

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