अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः हिरण्यगर्भः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी गायत्री ।
अग्ने यत्ते शुक्रं यच्चुन्द्रं यत्पूतं यच्च॑ य॒ज्ञियम्। तद्देवेभ्यों भरामसि
-यजु० १२ । १०४
हे (अग्ने ) अग्रनायक परमेश्वर ! ( यत् ते शुक्रं ) जो तेरा दीप्तिमान् रूप, ( यत् चन्द्रं ) जो आह्लादक रूप, ( यत् पूतं ) जो पवित्र रूप ( यत् च यज्ञियं ) और जो यज्ञसंपादनयोग्य रूप है, ( तत् ) उसे हम ( देवेभ्यः ) विद्वान् प्रजाजनों के लिए (भरामसि )* लाते हैं ।
हे जगदीश्वर ! आप ‘अग्नि’ हो, अग्रनायक हो, जो आपको अपना अग्रणी बनाता है, उसे सत्पथ पर चला कर उसके नियत उद्देश्य तक पहुँचा देनेवाले हो। आप अग्नि के तुल्य तेजस्वी-यशस्वी भी हो। साधक को आपके अनेक रूप दृष्टिगोचर होते हैं। कभी आपका ‘शुक्र’, अर्थात् जाज्वल्यमान रूप उसके सम्मुख प्रकट होता है, जो उसके अन्त:करण को उद्भासित कर देता है। उसका मानस दृढ़ सङ्कल्प की ऊँची ऊँची अर्चियाँ उठाने लगता है। कभी उसके सम्मुख आपका ‘चन्द्र’ रूप, अर्थात् चाँद-जैसा आह्लादक रूप प्रकट होता है, जिस के माधुर्य से उसको हृदय रसमय, मधुर, शीतल हो जाता है। कभी उसके सम्मुख आपका ‘पूत’ अर्थात् पवित्र रूप आविर्भूत होता है, जिससे उसके तन, मन, धन, ज्ञान, कर्म, उपासना सब निर्मल हो जाते हैं। कभी उसके सम्मुख आपका यज्ञिय अर्थात् यज्ञार्ह, पूजार्ह तथा यज्ञसम्पादक रूप प्रकाशित होता है, जिससे वह आपकी वन्दना, अर्चना, पूजा में प्रवृत् हो जाता है। आपका यज्ञनिष्पादक रूप साधक को भी विद्यायज्ञ, शान्तियज्ञ, शिल्पयज्ञ, योगयज्ञ, उपासनायज्ञ, धर्मप्रवर्तन-यज्ञ आदि के निष्पादन में प्रवृत्त कर देता है।
हे सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी परमात्मन् ! मन्त्रोक्त रूपों से इतर भी आपके अनेक रूप हैं, जिनका ध्यान करने से साधक ‘देव’ बन जाता है। हम चाहते हैं कि न केवल हमारे राष्ट्र को, अपितु समग्र संसार का प्रत्येक निवासी आपके गुणों का मनन, चिन्तन, ध्यान करके, उन्हें अपने अन्दर धारण कर कृतकृत्य हो। हे देवेश! हम भी आपके गुणों को अपने अन्तरात्मा में धारण करते हैं।
पाद-टिप्पणियाँ
१. शुक्रं शोचतेचैलतिकर्मणः, निरु० ८.११ । औणादिक रन् प्रत्यय।
२. चन्द्रं, चदि आह्लादे। स्फायितञ्चि० उ० २.१३ से रक् प्रत्यय । चन्दतिआह्लादयति स चन्द्रः ।।
३. यज्ञकर्म अर्हतीति यज्ञियः। तत्कर्माहतीत्युपसंख्यानम्’ वार्तिक पा०१.६.४ से घ प्रत्यय ।
४. भरामसिहरामः । हृञ् हरणे, हग्रहोर्भश्छन्दसि, इदन्तो मसि ।।
अग्नि प्रभु के विभिन्न गुण -रामनाथ विद्यालंकार