एक अग्नि भौतिक एक आत्मिक । भौतिक अग्नि चूल्हे में जलनी है, कुण्ड में प्रदीप्त होती है, कलाओं की चलाती हैं, कहीं उष्मा और कहीं प्रकाश का कारण होती है। दो पदार्थ आपस में टकराते है। संघर्षण से गर्मी निकलती है। वैज्ञानिक कहते हैं विद्युत् है । याज्ञिक विद्युत् को अग्नि का रूप मानते हैं। परोक्ष रूप में विद्युत् स्थान में काम कर रही है। अणुओं का का गुण गति है। और गति और उष्मा सहवर्ती हैं ।
प्राणियों का जीवन प्राणों की गति से है। जब तक प्राण चलते हैशरीर में उष्मा बनी रहती है। प्राणों का तांता रुका और शरीर ठण्ढा हुआ। लोक में ठण्डक और मृत्यु पर्याय है।
यही प्रलय और सृष्टि का भेद है प्रलय में परमाणु सुप्त होते हैं। सुप्त लुप्त होता है सृष्टि परमाणुओं की प्रवृत्ति का नाम हैं। पहला कम्पन आधुनिक संसार का पहला जन्म अलग करो चलने परमाणु टकराते हैं। उनमें विद्युत धूम जाती है ! यज्ञ चल पड़ता है।
ऐसे हो आत्मिक जगत् में उत्साह अग्नि है आलस्य मृत्यु जागृति जीवन हैं, सुषुप्ति मृत्यु है । आत्माभिमान जीवन, आत्म हानि मृत्यु । अग्नि शब्द जीवन के इन सब लक्षणों का पर्याय हैं । यह सोच कर पट्टो मुह पर मत बांधो कि श्वास प्ररश्वास से प्राणी मरेंगे । चिऊटियां कुचल जाने के भय से गुफ़ा में टिके रहने से अहिंसा व्रत का पालन नहीं होता। ऐसी अहिंसा जड़ पदार्थ कर लेते है । अहिसा में हिंसा का निषेध हैं तो इसके विरोधी धर्म रक्षा की भी विधि है। योगी वह है जो क्रियात्मिक धर्म का पालन करें। निष्क्रिय अहिंसा तो राख द्वारा भी पलित है उस पर चिऊटियां चढ़ती है परन्तु उसमें शक्ति नहीं कि उनका वाल वांका कर सके । अग्नि जलने की शक्ति रखती परन्तु वचाव हैं भी उसी से होता है । शतघ्नी रणक्षेत्र में सैकड़ों का नाश करती है परन्तु इसी नाश से सहस्रों और लक्षों का त्राण हो जाता है। युद्ध जातीय जीवन का आवश्यक अंग है। क्षत्रिय अपना क्षय करता है दूसरे को त्राता है। यह रहस्य मुझे क्ष और त्र ने बताया । दुष्टों का संहार अहिंसा है आयों का परित्राण अहिंसा हैं। ऐसे ही सत्य ऐसे ही अस्तेय जव तक अग्नि है तब तक धर्म हैं । जव राख हुवे तव राख से अधिक कुछ नहीं।
यज्ञ का मुख्य देवतो अग्नि है। वेद इसे हव्य वाट कहता है। अर्थात् हव्य पदार्थ उठा ले जाने वाला। इसके बिना यश कीसफलता नहीं दूसरे देव अग्नि की बाट देखते हैं
हवन मंत्रों में से इसे “अन्नाद” कह कह पहिले तो इस तत्त्व की और सङ्कत किया है कि यह हव्य खा जाता है । पन्तु किस निमित्त उसी श्वास में कहते हैं अन्नाधाय अर्थात् खाने योग्य अन्न देने के निमित्त । अग्नि देवताओं का दूत है हवि को अकेला आप चट नहीं करता। अन्य देवताओं तक पहुँचाता है । मुखिया होकर उनके सेवक का काम करता है। देवताओं द्वारा खाया हुआ यज्ञ फल रूप में यजमान को लौट आता है।
यथा ब्राह्मण वर्ण जातीय देह का मुख होकर उसके दिये धन धान्य को खाते हैं परन्तु स्वयं उसकी इति श्री नहीं करते ब्राह्मण के लिये स्वाद का दास होना हलाहल विष है। उसके खाये का उपयोग सारी जाति के लिये है। स्वामी होकर सब का सेवक बनता हैं ऐसे ही अग्नि अपने
उदरसे दूसरों की उदर पूर्ति करता है।
यज्ञ की उन्नतिशील यज्ञकी अग्नि सजग, यज्ञ की अग्नि पुनीत और पावन, यज्ञ की अग्निस्वयं प्रकाश दूसरों । के लिये प्रकाशमय यज्ञ की अग्नि अपने खाने के बहाने दूसरों को खिलाने वाली।
इस जोत के जगाने से यजमान की आत्मा में जलता पुरुषार्थ, जलता उत्साह, जलता तेज और जलती परोपकार की लगन आती है हम पर विश्वास नहीं तो यही कथन जलती ज्वालाओं की जाज्वल्यमान जिह्वाओं से सुनलो।