अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार
ऋषिः शङ्खः । देवता पितरः । छन्दः विराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।
येऽअग्निष्वात्ता येऽअनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते। तेभ्यः स्वराडसुनीतिमेतां यथावृशं तन्वं कल्पयाति ॥
-यजु० १९६० |
( ये ) जो ( अग्निष्वात्ताः ) अग्निविद्या को सम्यक् प्रकार से ग्रहण किये हुए और (अनग्निष्वात्ताः ) अग्नि-भिन्न ज्ञानकाण्ड को सम्यक् प्रकार से ग्रहण किये हुए पितृजन ( दिवः मध्ये ) ज्ञान-प्रकाश के मध्य में ( स्वधया ) स्वकीय धारणविद्या से (मादयन्ते) सबको आनन्दित करते हैं ( तेभ्यः ) उनके लिए ( स्वराड्) स्वराट् परमात्मा ( एताम् असुनीतिं तन्वं ) इस प्राणक्रिया प्राप्त शरीर को ( यथावशं ) इनकी इच्छानुसार ( कल्पयाति ) समर्थ बनाये अर्थात् स्वस्थ और दीर्घायु करे।
उवट और महीधर ने अग्निष्वात्त तथा अनग्निष्वात्त मृत पितर माने हैं, जो स्वर्गलोक में रहते हैं। उनके अनुसार अग्निष्वात्त वे पितर हैं, जिनका अग्नि स्वाद ले चुका है, अर्थात् जिनका अन्त्येष्टि-कर्म हो चुका है और अनग्निष्वात्त पितर वे हैं, जिनका किसी कारण अन्त्येष्टि द्वारा अग्निदाह नहीं हुआ है, जैसे, जो जल में डूब कर मरे हैं या सिंह-व्याघ्र आदि ने जिन्हें खा लिया है, अथवा जो भूकम्प आदि दुर्घटना में दबे कर मर गये हैं। स्वामी दयानन्द इन्हें जीवित पितर ही मानते हैं। उनके मत में अग्निविद्या को जिन्होंने सम्यक्प्रकार गृहीत किया है, वे अग्निष्वात्त हैं । ये अग्नि परमेश्वराग्नि, यज्ञाग्नि, शिल्पाग्नि, विद्युरूप अग्नि, सूर्यरूप अग्नि सभी हो सकते हैं, अर्थात् अग्निष्वात्त पितर अग्निविद्या के पण्डित हैं। इसमें कर्मकाण्ड भी सम्मिलित है। अग्निभिन्न विद्या वा विद्याओं को जिन्होंने ग्रहण किया है, वे अनग्निष्वात्त पितर हैं। ये अग्निभिन्न विद्याएँ योगविद्या, आयुर्वेदविद्या भूगर्भविद्या, खगोलविद्या आदि अनेक हो सकती हैं। ये अग्निष्वात्त और अनग्निष्वात्त पितर हमारे पिता, पितामह, प्रपितामह, माता, मातामह, प्रमातामह, आचार्य तथा अन्य पूज्य विद्वज्जन होते हैं। ये हमारे पितर द्यौ’ के मध्य में अर्थात् ज्ञानप्रकाश में विचरते हैं। किन्हीं को अग्निविद्या का प्रकाश प्राप्त है, किन्हीं को अग्निभिन्न विद्याओं का प्रकाश उपलब्ध है। जैसे हम सूर्य के प्रकाश में विचरते हैं, ऐसे ये ज्ञान के प्रकाश में विचरते हैं। इनके अन्दर ‘स्वधा’ होती है, स्वयं को धारण करने की शक्ति विद्यमान रहती है। ये विघ्नों, आपदाओं, प्रतिकूलताओं से विचलित न होकर स्थिर और स्थितप्रज्ञ रहते हैं। इस स्वधा-शक्ति से ये स्वयं को तो आनन्दित करते ही हैं, अपने सम्पर्क में आनेवाले अन्य जनों को भी आनन्दलाभ कराते हैं। इन पितरों के लिए स्वराट् परमात्मा से प्रार्थना की गयी है कि वह प्राणव्यापार से युक्त इनके शरीर को इनकी इच्छा के अनुसार समर्थ बनाये, स्वस्थ और दीर्घायु करे, जिससे ये चिरकाल तक अपनी विद्याओं द्वारा मानवों का हित-सम्पादन करते रहें।
पाद-टिप्पणियाँ
१. ये अग्निष्वात्ता: ये पितर: अग्निष्वात्ता अग्निना आस्वादिताः, ये चअनग्निष्वात्ताः श्मशानकर्म अप्राप्ताः-उवटः ।।
२. (अग्निष्वात्ताः) अग्निः परमेश्वरो ऽ भ्युदयाय सुष्टुतया आत्तो गृहीतयैस्ते ऽग्निष्वात्ताः। तथा होमकरणार्थं शिल्पविद्यासिद्धये चभौतिकोऽग्निरोत्तो गृहीतो यैस्ते । ऋ०भा०भू०, पितृयज्ञविषयः ।। ।
३. (ये अग्निष्वात्ताः) ये अग्निविद्यायुक्ताः, (अनग्निष्वात्ता:) वायुजलभूगर्भविद्यादिनिष्ठा:-वही।
अग्निष्वात और अनग्निष्वात पितर -रामनाथ विद्यालंकार