जी हाँ इतना विज्ञानं आप सुनकर चौंक जायेंगे –वैसे तो किसी भी पशु का मांस नहीं खाना चाहिए क्योंकि ये मनुष्यता नहीं – फिर भी यहोवा को कुछ अकल आई और उसने कुछ पशुओ को अशुद्ध ठहरा दिया – उन पशुओ में सूअर, शापान आदि के साथ साथ एक जानवर आपने देखा होगा – “खरगोश” – इसके मांस को – यहोवा ने अशुद्ध बताया है –आइये एक नजर डालिये – की इन पशुओ में क्या ऐसा है जो इनको अशुद्ध बनाता है – और अन्य पशुओ को शुद्ध –1 फिर यहोवा ने मूसा और हारून से कहा 2. इस्त्राएलियों से कहो, कि जितने पशु, पृथ्वी पर हैं उन सभों में से तुम इन जीवधारियों का मांस खा सकते हो। 3. … Continue reading बाइबल में यहोवा का भयंकर विज्ञान→
ऋषिः दीर्घतमाः । देवता पुरुष: ( परमात्मा) । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् । हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुख॑म् यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पुरु॑ष॒ः सोऽसाव॒हम् । ओ३म् खं ब्रह्म ॥ I – यजु० ४० । १७ ( हिरण्मयेन पात्रेण ) स्वर्णिम पात्र से, सुनहरी ताले से ( सत्यस्य ) मुझ सत्यस्वरूप परमेश्वर का ( मुखं ) द्वार ( अपिहितं ) बन्द है । ( यः असौ ) जो वह ( आदित्ये ) आदित्य में ( पुरुषः ) पुरुष दीखता है ( सः असौ ) वह ( अहम् ) मैं हूँ । (ओ३म् खं ब्रह्म ) मेरा नाम ‘ओम्’ है, ‘खं’ है, ‘ब्रह्म’ है । हे सांसारिक जनो ! क्या तुम मेरा दर्शन करना चाहते हो । मेरे दर्शन के लिए तुम्हें मेरे मन्दिर में आना होगा … Continue reading ओ३म् खं ब्रह्म: डॉ रामनाथ वेदालङ्कार→
ऋषिः दीर्घतमाः । देवता परमात्मा । छन्दः स्वराड् आर्षी जगती । स पर्वग॑च्छुक्रम॑का॒यम॑त्र॒णम॑स्नावि॒रः शुद्धमपा॑पविद्धम् । क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्थान् व्य॒दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः – यजु० ४०।८ ( सः ) वह परमात्मा ( परि – अगात् ) चारों ओर व्याप्त है, सर्वव्यापक है, ( शुक्रं ) तेजस्वी है, ( अकायम् ) शरीर- रहित है, (अव्रणं ) घावरहित है, ( अस्नाविरं ) नस-नाड़ियों से रहित है, ( शुद्धं ‘ ) पवित्र है, ( अपापविद्धं ) पाप से विद्ध नहीं है । वह ( कवि: ) मेधावी है, क्रान्तद्रष्टा है, ( मनीषी ) बुद्धिमान् है, (परिभू: ४) दुष्टों को तिरस्कृत करनेवाला है, ( स्वयम्भूः ) स्वयम्भू है । उसने ( याथातथ्यतः ) यथातथ रूप में, अर्थात् जैसे होने चाहिएँ वैसा ( अर्थान् ) पदार्थों को ( … Continue reading परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव :डॉ रामनाथ वेदालङ्कार→
ऋषिः दीर्घतमाः । देवतां आत्मा । छन्दः अनुष्टुप् । असुर्या, नाम ते लो॒काऽअ॒न्धेन॒ तम॒सावृ॑ताः । ताँस्ते प्रेत्यापि॑िगच्छन्ति ये के चा॑त्म॒हना॒ जना॑ः ॥ I – यजु० ४० । ३ ( असुर्या : १ ) असुरों से प्राप्तव्य ( नाम ) निश्चय ही ( ते लोकाः ) वे लोक हैं, जो ( अन्धेन तमसा ) घोर अन्धकार से ( आवृताः ) आच्छादित हैं । ( तान् ) उन लोकों को (ते ) वे लोग (प्रेत्य ) मर कर ( अपि गच्छन्ति ) प्राप्त होते हैं, ( ये के च ) जो कोई भी ( आत्महन: २ जनाः ) आत्मघाती जन होते हैं । , सबसे पूर्व ‘आत्महनः का अर्थ समझ लेना चाहिए । आत्मन्’ शब्द परमेश्वर और जीवात्मा दोनों के लिए प्रयुक्त … Continue reading आत्मघाती लोग कहाँ जाते हैं? डॉ रामनाथ वेदालङ्कार→
ऋषिः नारायणः । देवताः सविता । छन्दः गायत्री । ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव । य॑ह्म॒द्रन्तन्न॒ऽआ सु॑व ॥ – यजु० ३० । ३ हे ( सवितः ) सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र- ऐश्वर्ययुक्त शुभगुणप्रेरक, (देव) तेजस्वी, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके (नः) हमारे ( विश्वानि ) सम्पूर्ण ( दुरितानि) दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को (परा सुव ) दूर कर दीजिए। (यत्) जो ( भद्रम् ) कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव और पदार्थ है, ( तत् ) वह सब, हमको ( आ सुव) प्रदान कीजिए । हे जगदीश्वर ! आप सूर्य, चन्द्र, तारावलि, पर्जन्य, पर्वत, निर्झर, सरिता, सागर आदि से परिपूर्ण सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता हो, समग्र ऐश्वर्यों से युक्त हो और हम मानवों के आत्मा में शुभ … Continue reading ईश- प्रार्थना:डॉ रामनाथ वेदालङ्कार→
ऋग्वेद के सम्पूर्ण सप्तम मण्डल के द्रष्टा वसिष्ठ हैं । बहुत थोड़े से मन्त्रों के द्रष्टा वसिष्ठपुत्र भी माने जाते हैं । इसी मण्डल में वसिष्ठ सम्बन्धी बहुत सी प्रचलित वार्त्ताओं का बीज पाया जाता है ।” अमीवहा वास्तोष्पते” इत्यादि ५५ वें सूक्त को प्रस्वापिनी उपनिषद् नाम से अनुक्रमणिका कार लिखते हैं । वृहद्देवता इसके विषय में विलक्षण कथा गढ़ती है, वह यह है – ” एक समय वरुण के गृह पर वसिष्ठ गए, इनको काटने के लिए भौंकता हुआ एक महाबलिष्ठ कुत्ता पहुँचा । तब वशिष्ठ ने ” यदर्जुन ” इत्यादि दो मन्त्रों को पढ़कर उसको सुलाया और पश्चात् अन्यान्य मन्त्रों से वरुण सम्बन्धी सब मनुष्यों को भगा दिया । ” कोई आचार्य इस सूक्त पर यह आख्यायिका कहते … Continue reading वसिष्ठ और चोरी :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ→
जैसे बहुत स्थलों में ब्रह्म और क्षत्र शब्द साथ आते हैं तद्वत् मित्र और वरुण शब्द भी पचासों मन्त्रों में साथ-साथ प्रयुक्त हुए हैं । कहीं असमस्त और कहीं समस्त । समस्त होने पर मित्रावरुण ऐसा रूप बन जाता है। मित्र और वरुण के दो-एक उदाहरण मात्र से आपको ज्ञात हो जाएगा कि यह ब्रह्मक्षत्र का वर्णन है; यथा- मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिसादसम् । धियं घृताचीं साधन्ता ऋ० । १ । २।६ ॥ पूतदक्ष = पवित्र बल, जिसका बल परम पवित्र है । रिसादस रिस+अदम् । रिस – हिंसक पुरुष । अदम् = भक्षक । हिंसकों का भी भक्षक । धी – कर्म, ज्ञान । घृताचीं घृतवत्, शुद्ध घृतवत् पुष्टिकारक आदि । अथ मन्त्रार्थ – (पूतदक्षं+मित्रम्+ रिसादसम्+ वरुणञ्च … Continue reading मित्र और वरुण :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ→
समीक्षा — यद्यपि वेद में जल स्थल और वासतीवर आदि का वर्णन नहीं तथापि वृहद्देवता ऐसा कहता है । वेदों के एक ही स्थान कुम्भ में दोनों ऋषियों की उत्पत्ति कही गई है। इसका भी भाव यह है कि क्या जल और क्या स्थल दोनों स्थानों में धर्म नियम तुल्य रूप में प्रचलित होते हैं । अब पुराणों की बात पर दृष्टि दीजिये । पुराण सर्वदा एक न एक भूल करते ही रहते हैं । पुराण ब्रह्मा से सारी उत्पत्ति मानते हैं, परन्तु बहुत सी बातें प्राचीन चली आती हैं जहाँ ब्रह्मा का कुछ भी सम्बन्ध नहीं, किन्तु पौराणिक समय में वे बातें इतनी प्रचलित थीं कि उनको दूर नहीं कर सकते थे । उर्वशी में मित्रावरुण द्वारा वसिष्ठ की … Continue reading भागवत :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ→
जिस ब्रह्म और क्षत्र का विवरण ऊपर दिखलाया है उनको ही वेदों में मित्र और वरुण कहते हैं । ब्रह्म मित्र है और क्षत्र वरुण है । इसमें यद्यपि अनेक प्रमाण मिलते हैं तथापि मैं केवल शतपथ का एक प्रबल प्रमाण यहाँ लिखता हूँ । यजुर्वेद ७ । ९ की व्याख्या करते हुए शतपथ कहता है- क्रतुदक्षौ ह वा अस्य मित्रावरुणौ । एतन्न्वध्यात्मं स यदेव मनसा कामयत इदं मे स्यादिदं कुर्वीयेति स एव ऋतुरथ यदस्मै तत्समृध्यते स दक्षो मित्र एव क्रतुर्वरुणो दक्षो ब्रह्मैव मित्रः क्षत्रं वरुणोभिगन्तैव ब्रह्म कर्त्ता क्षत्रियः ॥ १ ॥ ते ते अग्रे नानेवासतुः । ब्रह्म च क्षत्रं च । ततः शशाकैव ब्रह्म मित्र ऋते क्षत्राद्वरुणात्स्थातुम् ॥ २ ॥ न क्षत्रं वरुणः । ऋते ब्रह्मणो मित्राद्यद्ध किं च … Continue reading वशिष्ठ की उत्पत्ति :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ→
देश में अनेक त्रुटियाँ हैं, गवेषणा नहीं कही जाती । शतपथादि ब्राह्मण ग्रन्थों में तथा महाभारत, रामायण, पुराणों में बहुत सी ऐसी आख्यायिकाएँ उक्त हैं जिनसे बड़े-बड़े मानव हितकारी सिद्धांत निकलते हैं, क्योंकि वेदों से वे सब आए हुए हैं, किन्तु कथा के स्वरूप में वे वैदिक सिद्धान्त लिखे गये हैं, अतः उनका आशय आज सर्वथा अस्त-व्यस्त हो गया है । उदाहरण के लिये, मैं वेदों के सुप्रसिद्ध वसिष्ठ और अगस्त दो ऋषियों को प्रस्तुत करता हूँ। क्या यह सम्भव है कि दो पुरुषों के बीज मिलकर बालकों को उत्पन्न करें, वह भी साक्षात मातृगर्भ में नहीं किन्तु स्थल और घट में उत्पत्ति हो ? उर्वशी के दर्शन मात्र से मित्र और वरुण दो देवों का चित्त चञ्चल हो जाए … Continue reading वसिष्ठ और अगस्त :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ→