हदीस : दानार्थ कर (ज़कात)

दानार्थ कर (ज़कात)

पांचवी किताब ”अल-जकात“ (दान अथवा दानार्थ कर) के विषय में है। प्रत्येक समाज अपने दीन-हीन भाइयों के प्रति दयाभाव का उपदेश देता है और कुछ हद तक वैसा व्यवहार भी करता है। दान अथवा ज़कात एक पुरानी अरब परम्परा थी। किन्तु मुहम्म्द ने उस को एक ऐसे कर का रूप दे दिया जो उदीयमान मुस्लिम राज्य को देना मुसलमानों के लिए अनिवार्य बन गया। उस कर को राजकीय प्रतिनिधि ही खर्च कर सकते थे। इस रूप में ज़कात दाताओं के लिए एक भार बन गया। इसके सिवाय राजकीय प्रतिनिधि इस का उपयोग अपनी सत्ता और महत्ता के लिए करने लगे।

 

”जकात की किताब“ का बहुलांश सत्ता के मुद्दे से सम्बन्धित है। शुरू में मुहम्मद के साथियों में अनेक ऐसे थे जो जरूरतमन्द थे। उनमें से अधिकतर अपने घर छोड़ कर आए थे और मदीना-निवासियों के सद्भाव और दानशीलता पर निर्भर थे। दान के विषय में जो वाग्मिता मिलती है, वह इसी स्थिति से निष्पन्न हुई थी। अभी तक इस दीन-दुःखी लोगों को लेकर किसी व्यापक और सार्वभौम भाईचारे की भावना नहीं पनपी थी। किसी विशाल-तर मानवीय भाईचारे का भाव भी नहीं था। ज़कात केवल अपने हम-मजहब भाइयों के लिए विहित थी। अन्य सब लोगों को इसकी परिधि से परे रक्खा गया। तब से लेकर अब तक ज़कात का रूप यही रहा है।

author : ram swarup

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *