यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है?

जिज्ञासा :- आचार्य जी, ‘‘समाधान – 93’’ में आपने जो दिया है, उसमें थोड़ी-सी शंका शेष रह गई है और वह यह है कि ईश्वर ने इस साकार जगत् की रचना प्रकृति के परमाणुओं से की है। इसका मतलब प्रकृति के परमाणुओं में साकारत्व का गुण है, तभी तो साकार जगत् बन पाया। पंचभौतिक तत्त्व भी प्रकृति के परमाणुओं से ही बने हैं, तो इन परमाणुओं से निराकार पदार्थ कैसे बन जाते हैं और फिर वे निराकार पदार्थ परस्पर मिलते हैं, तो आकार कैसे ग्रहण कर लेते हैं, अर्थात् साकार कैसे बन जाते हैं? यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है?

निम्न बिन्दुओं पर भी स्थिति स्पष्ट करने का कष्ट करें-

(1) आपने आकाश निराकार बताया है। यह प्रकृति के परमाणुओं से बना है। इसी तरह वायु भी निराकार है, अग्नि जब प्रकट होती तब साकार होती है, अन्यथा निराकार। यह क्यों है?

(2) मेरे विचार से प्रलयकाल में जब प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में होती है, तब निराकार ही होती है और ईश्वर तथा जीव निराकार होते ही हैं। फिर निराकार प्रकृति से साकार जगत् कैसे बना?

(3) महर्षि दयानन्द जी ने बताया है कि साकार चीजें असीम नहीं होती, बल्कि जीवात्माएँ भी संया वाली हैं, चाहे वे मनुष्य की गिनती से बाहर हों। ऐसी अवस्था में आकाश या अवकाश रूप आकाश असीम है या ससीम है?

(4) वायु ससीम है या असीम?

(5) क्या ईश्वर के अतिरिक्त अन्य भी कोई तत्त्व ऐसा है, जो असीम हो?

कृपया, समाधान करने का कष्ट करें।

– इन्द्रसिंह पूर्व एस.डी.एम. 29- नई अनाज मण्डी, भिवानी (हरियाणा) चलभाषः – 9416057813

समाधानः परमेश्वर ने यह संसार अपने सामर्थ्य से मूल प्रकृति को लेकर बनाया है। संसार के बनाने में परमेश्वर निमित्त कारण और प्रकृति उपादान कारण है। स्थूल जगत् के बनने की प्रक्रिया महर्षि कपिल ने अपने सांय दर्शन में दी है-

सत्त्वरजतमसां सायावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान्, महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिद्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूलभूतानि……।।  सां.- 1.61

सत्त्व, रज, तम- इन तीन वस्तुओं से मिलकरजो एक संघात है, उसका नाम प्रकृति है। उस प्रकृति से महतत्त्व बुद्धि, उस महतत्त्व से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्रा अर्थात् सूक्ष्म भूत- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द , दस इन्द्रियाँ तथा ग्यारहवाँ मन, पाँच तन्मात्राओं से पाँच स्थूल भूत अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और इन पाँच महाभूतों से यह दृश्य जगत्।

प्रकृति से जो कुछ भी उत्पन्न होता है, वह आकार वाला होता है, क्योंकि प्रकृति स्वयं आकार वाली है, जो गुण कारण में नहीं होते, वे कार्य में भी नहीं होते। यदि ऐसा होने लग जाये, तो अभाव से भाव की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जो द्रव्यात्मक पदार्थों में कभी घट ही नहीं सकता। महर्षि दयानन्द ने भी प्रकृति को आकार वाला माना है। महर्षि लिखते हैं-‘‘…….वह प्रकृति और परमाणु जगत् का उपादान कारण है और वे सर्वथा निराकार नहीं, किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य कार्य से सूक्ष्म आकार रखते हैं।’’ – स. प्र. स. 8

आपने जो कहा कि ‘‘मेरे विचार से प्रलयकाल में जब प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में होती है, तब निराकार ही होती है।’’ यह विचार ऋषि के विचार से नहीं मिल रहा है। यदि ऐसा मान भी लें तो अभाव से भाव की उत्पत्ति वाली बात हो जायेगी, जो कि युक्त नहीं है। ऊपर जो लिखा कि प्रकृति से उत्पन्न पदार्थ आकार वाले होते हैं, इस कथन से आकाश निराकार कैसे सिद्ध होगा- यह प्रश्न खड़ा हो जायेगा। इसके लिए मेरा कथन है कि जो आपने परोपकारी के जिज्ञासा समाधान-93 की चर्चा की है, उसमें साकार निराकार की तीन परिभाषाएँ लिखी हैं, उनको यहाँ पुनः उद्धृत करता हूँ-

  1. साकार वह है, जो प्रकृति से बना हुआ, इसके अतिरिक्त निराकार।
  2. साकार वह, जिसमें रूप, रस, गन्धादि पाँचों गुण प्रकट हों, इससे भिन्न अर्थात् जिसमें पाँचों गुण प्रकट न हों, वह निराकार।
  3. साकार वह, जिसमें केवल रूप गुण प्रकट रूप में हो, अर्थात् जो आँखों से दिखाई दे वह साकार, इससे भिन्न निराकार।

इन परिभाषाओं के आधार से पहली परिभाषा के अनुसार देखें तो जो प्रकृति से बना आकाश है, वह भी साकार होगा। जहाँ आकाश को निराकार कहा है, वहाँ सापेक्ष रूप से कहा है। आकाश पाँच भूतों में सबसे सूक्ष्म है, उसको हम केवल शब्द  के आधार से अनुमान लगाकर जान पाते हैं। इसी प्रकार वायु को स्पर्श से जान पाते हैं। रूप क ी दृष्टि से तो ये निराकार ही कहलाएँगे।

हाँ, जिस अवकाश रूप आकाश की बात ऋषि करते हैं, जो कि प्रकृति से नहीं बना, वह तो निराकार ही है और यह अवकाश रूप आकाश असीम है। इन आकाश, वायु आदि के असीम-ससीम के विषय में हम इतना ही कह सकते हैं कि ये पदार्थ प्रकृति से बने होने केकारण ससीम हैं। शेष बाद में लिखेंगे।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

जिज्ञासा- कुछ जिज्ञासायें मन में हैं। कृपया समाधान करने का कष्ट करेंः- 1-यम, 2-नियम, 3-आसन, 4-प्राणायाम, 5- प्रत्याद्वार, 6-धारणा, 7-ध्यान एवं 8-समाधि। यह क्रम महर्षि पतञ्जलि ने योग दर्शन में दिया है। क्या यम-नियम का पालन करने वाला व्यक्ति भी सीधे ध्यान (7) अवस्था में पहुँचकर ध्यान का अयास कर सकता है? यदि कर सकता है तो फिर यम- नियम आदि की क्या आवश्यकता है? आखिर यह ‘‘ध्यान प्रशिक्षण योजना’’ जो परोपकारी पत्रिका मार्च (प्रथम) 2015 में प्रकाशित है व पहलेाी कई बार प्रकाशित/प्रचारित हुई है, क्या है?

समाधान– (क) ध्यान/उपासना के लिए यम-नियम रूप योगाङ्गों का अनुष्ठान अनिवार्य है। इसको महर्षि पतञ्जलि अपने योगदर्शन में कहते हैं। महर्षि दयानन्द नेाी इस तथ्य को अनिवार्य कहा है। महर्षि उपासना प्रकरण ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में लिखते हैं- ‘……….इन पाँचों का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने से उपासना का बीज बोया जाता है।’’ ऋषियों के इन मन्तव्यों से तो यही ज्ञात हो रहा है कि ध्यान-उपासना के लिए यम-नियम का पालन करना अनिवार्य है।

अब हम थोड़ा विचार इन आठ अङ्गों पर कर लेते हैं। इन योगाङ्गों की व्याया करते हुए प्रायः उपदेशक वर्ग इनक ो सीढ़ी की भाँति बताया करता है, अर्थात् जैसे ऊपर चढ़ने के लिए हम सीढ़ी का प्रयोग करते हैं। सीढ़ी से चढ़ने के लिए पहले हम प्रथम सीढ़ी पश्चात् दूसरी, तीसरी आदि का प्रयोग करते हैं, पहली से अन्तिम पर नहीं पहुँच जाते वहाँ तो क्रम है। ऐसे ही इन योगाङ्गों की व्याया की जाती है, अर्थात् पहले यम को सिद्ध करें फिर नियम को पश्चात् आसन को आदि।

किन्तु यह जो सीढ़ी की तरह कहना दिखाना है, युक्ति युक्त नहीं है, क्योंकि बिना यम-नियम के पालन से भी व्यक्ति आसन लगा सकता है, प्राणायाम कर सकता है। यदि ऐसा न होता तो कोई आसन, प्राणायाम न कर सकता था, इसलिए यह सीढ़ी वाला उदाहरण योगाङ्गों में घटाना सर्वाथा युक्त नहीं है।

इसमें यह अवश्य समझना चाहिए कि व्यक्ति जितना-जितना यम-नियम का पालन करता जायेगा, वह उतना-उतना धारणा, ध्यान की ओर अग्रसर होता चला जायेगा। कोई यह न समझे कि जब इन यम-नियम को पूरी तरह सिद्ध कर लूँगा, तब ही ध्यान करुँगा। ध्यान का अयास यम-नियम की प्रारभिक अवस्था से किया जा सकता है। हाँ, ध्यान की ऊँची अवस्था तो यम-नियम के पूर्ण रूप से पालन करने पर ही होगी, किन्तु प्रारभ में भी जब व्यक्ति सात्विक भाव से युक्त होकर ध्यान करता है तो उसको भी प्रारभिक ध्यान का आनन्द तो आयेगा ही।

इतना सब लिखने का तात्पर्य यही है कि सर्वथा यम-नियम से रहित व्यक्ति तो ध्यान नहीं कर सकता अपितु जो जितने अंश में इनका पालन करता है, वह इतने स्तर का ध्यान भी कर सकता है, किन्तु जिस ध्यान की बात महर्षि पतञ्जलि करते हैं, वह ध्यान तो नहीं होगा, फिर भी इस ध्यान को आप गौण रूप में तो देख ही सकते हैं।

आपने परोपकारिणी सभा की ध्यान पद्धति के विषय में पूछा है। इस विषय में आपको बता दें कि इस ध्यान पद्धति की योजना इस कारण बनी कि सब मत-सप्रदाय प्रायः अपने-अपने विचार से ध्यान करवाते हैं। हमारे आर्य समाज में संध्या की जाती है। संध्या के बहुत सारे मन्त्र हैं, इन मन्त्रों को सब कोई नहीं जानता। जो नहीं जानता वह भी वैदिक रीति से ध्यान, उपासना कर सके, उसके लिए यह ध्यानह-पद्धति विद्वानों ने मिलकर तैयार की है। इस ध्यान पद्धति में अवैदिक और सिद्धान्त विरुद्ध कुछ भी नहीं है। यह पद्धति ऋषियों की रीति अनुसार विद्वानों द्वारा निर्मित है। इस पद्धति से साधारण से साधारण व्यक्ति भी ध्यान कर सकता है।

इस ध्यान-पद्धति का अनेक लोग लाभ उठा रहे हैं और जिन्होंने इसका प्रशिक्षण परोपकारिणी सभा से लिया है वे प्रशिक्षक होकर अन्यों को भी सिखा रहा है। इस प्रकार इससे अनेक जन उपकृत हो रहे हैं।

जैसे ऊपर कहा जा चुका है कि यह ध्यानह-पद्धति जन साधारण भी कर सके उसके लिए है। उन जन साधारण के लिए तो इस पद्धति को पर्याप्त कह सकते हैं किन्तु जो विशेष अध्यात्म के मार्ग में योग्यता रखते हैं, उनके लिए  कदाचित यह पर्याप्त न हो। यह ध्यान-पद्धति दो भागों में विभक्त कर रखी है, एक पन्द्रह मिनट की और दूसरी तीस मिनट की। जो लोग ध्यान करना चाहते हैं किन्तु विशेष योग्यता नहीं रखते, वे इस पन्द्रह मिनट की ध्यान- पद्धति का लाभ उठा सकते हैं और जो कुछ योग्य हैं, उनके लिए तीस मिनट की ये पद्धति है। वे इससे लाभ उठा सकते हैं। किन्तु जो विशेष योग्यता रखते हैं, वे महर्षि वर्णित उपासना प्रकरण व योग दर्शन के अनुसार अपने को प्रगति दे सकते हैं अथवा ध्यान योग शिविरों में इस विषय के योग्य विद्वानों के संग अपना परिष्कार कर सकते हैं। इस विषय में इतना ही।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अन्त समय में यह किस आशय से पूछा था कि ‘आज कौन-सा पक्ष, क्या तिथि और क्या वार है?’ अन्यत्र संस्कार विधि में भी तिथि व नक्षत्रादि का उल्लेख मिलता है। हमने एक वैद्य से सुना है कि ‘वैद्यक शास्त्रों’ में लिखा है कि औषिधियों का प्रभाव तिथि, नक्षत्र, पक्ष तथा उत्तरायण व दक्षिणायन में अलग-अलग पड़ता है?

महर्षि दयानन्द ने अन्त समय में जो तिथि वार आदि पूछे, वे सामान्यरूप से पूछे गये प्रतीत होते हैं। इसमें कोई बड़ा रहस्य हो ऐसा लग नहीं रहा। कई बार हम श्रद्धावशात् सामान्य को भी विशेष रूप में देखने का प्रयास करने लगते हैं और इस हमारे प्रयास में कहीं न कहीं पौराणिकता आ जाती है।

हाँ आपने जो औषधियों पर प्रभाव की बात कही वह तो सकती है, होती होगी।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने संस्कार-विधि के सामान्य प्रकरण में आघारावाज्याहुति व आज्याभागाहुति देने से पूर्व लिखा है कि ‘स्रुवा को भर अँगूठा मध्यमा अनामिका से स्रुवा को पकड़ के…..’ कृपया बताएँ कि स्रुवा को इन तीन से ही क्यों पकड़ा जाए?

(ख) स्रुवा को तीन अंगुलियों से पकड़ने का विधान महर्षि दयानन्द द्वारा ही वर्णित मिलता है, कहीं और स्थान पर इसका वर्णन हो ऐसा देखने में नहीं आया। तीन से पकड़े जाने का प्रयोजन क्या है, इसका भी वर्णन देखने को नहीं मिलता। हाँ अपनी कुछ संगतियाँ तो लगा सकते हैं। पाँचों अँगुलियों में एक-एक महाभूत कुछ लोग मानते हैं- इस आधार अँगुलियों की मुद्रा विशेष भी बनाई जाती हैं, जिससे कुछ शारीरिक प्रभाव पड़ता है। हो सकता है यहाँ भी वह प्रभाव होता हो, इस दृष्टि इन तीनों से स्रुवा पकड़ने लिए कहा हो। अथवा अन्य कोई प्रयोजन विद्वान् लोगों ने विचार किया हो तो हमें ज्ञात करावें।

श्रौत-यज्ञ-मीमांसा’ पुस्तक के पृष्ठ 177 व 178 पर श्रद्धेय युधिष्ठिर मीमांसक जी ने कश्यप-पुत्र असुर को इस पृथिवी का प्रथम शासक बताया है।

श्रौत-यज्ञ-मीमांसा’ पुस्तक के पृष्ठ 177 व 178 पर श्रद्धेय युधिष्ठिर मीमांसक जी ने कश्यप-पुत्र असुर को इस पृथिवी का प्रथम शासक बताया है। साथ ही वे (तैत्तिरीय-संहिता 6-3-7-2 का सर्न्दा देकर) लिखते हैं कि पहले निश्चय ही यज्ञ असुरों में था….बाद में देवों के हाथ में आ गया……यहाी लिखा है कि असुरों का यज्ञ ध्वंसनात्मक (यज्ञ क्या ध्वंसनात्मक भी होता है) था । कृपया, इस पूरे प्रकरण का सही-सही भाव बताने का कष्ट करें।

 

समाधान– (क) शास्त्रों में यज्ञ का वर्णन विस्तार से मिलता है। यज्ञ का अर्थ करते समय ऋषियों ने व्यापक दृष्टि रखी है। यज्ञ केवल अग्निहोत्र ही नहीं है, अपितु इस ब्रह्माण्ड में जो हो रहा है वह भी यज्ञ ही है। प्रातः काल से ही सूर्य संसार को अपनी ऊर्जा देकर यज्ञ कर रहा होता है। रात्रि में चन्द्रमा अपना शीतल प्रकाश फैलाकर यज्ञ कर रहा होता है। इस प्रकार यज्ञ के व्यापक रूप को देख प्रलय और सृष्टि को भी यज्ञ का ही रूप दे डाला। प्रलय को ध्वंसनात्मक यज्ञ और सृष्टि उत्पत्ति को सृजनात्मक यज्ञ कहा गया है।

पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक ने इस को लेकर अपनी पुस्तक में विस्तार से वर्णन किया है। पाठकों की दृष्टि से उनके वचन ही यहाँ लिखते हैं- ‘‘यज्ञों के सबन्ध में कथानक वैदिक वाङ्मय में मिलता है वह दो प्रकार का है। एक सृष्टिगत आसुर और दैव यज्ञों के सबन्ध में, और दूसरा श्रोतसूत्रोक्त मानुष द्रव्य यज्ञों के सबन्ध में। दोनों के वर्णन में स्थान-स्थान पर देव और असुर शदों का प्रयोग मिलता है, अतः इन वचनों के विषय में बड़ी कठिनाई होती है। हम अपनी बुद्धि के अनुसार दोनों वचनों का विभाग करके लिखते हैं।’’

प्रस्तुत आसुर यज्ञों पर विचार करने से पूर्व यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि भारतीय दर्शन के अनुसार सृष्टि और प्रलय का चक्र सदा चलता ही रहता है। परन्तु जब वर्तमान सृष्टि के विषय में लिखना होता है तो भारतीय ग्रन्थकार वर्तमान सृष्टि से पूर्व जो प्रलयावस्था रही थी, उसका पहले संक्षेप से वर्णन करते हैं, पश्चात् सृष्टि के  सृजन का।

हमारे सौरमण्डल की स्थिति और प्रलय का काल  8 अरब 64 करोड़ वर्ष का है। इसमें 4 अरब 32 करोड़ वर्ष दिन अर्थात् सृष्टि का स्थिति काल और 4 अरब 32 करोड़ वर्ष रात्रि अर्थात् प्रलयकाल होता है। प्रलयकाल के आरा में आसुर=ध्वंसनात्मक प्रवृत्तियाँ उत्तरोतर वृद्धिगत होती है प्रलय के मध्य में पूर्णता को प्राप्त होने के पश्चात् दैवी प्रवृत्तियों का उत्तरोत्तर विकास होता है और आसुर प्रवृत्तियाँ घटती जाती हैं। इस कारण वर्तमान सृष्टि से पूर्व प्रलय काल में आसुर प्रवृत्तियों के कारण ध्वंसनात्मक यज्ञ हो रहे थे, अर्थात् प्रलयात्मक यज्ञ आसुर शक्तियों के पास था। इसी का निर्देश तैत्तिरीय संहिता 6.3.7.2 में किया है।

‘‘असुरेषु वै यज्ञ आसीत्, तं देवा तुष्णीं होमेनापवृञ्जन्।।’’ अर्थात् – पहले निश्चय ही यज्ञ असुरों में था। देवों ने उसे तूष्णीम् होम से काट लिया=छीन लिया। अभिप्राय स्पष्ट है कि जब प्रलयकाल में आसुरी शक्तियाँ प्रबल हो रही थीं, तब सर्गोन्मुखकाल में दैवी शक्तियों ने तूष्णीं=चुपचाप=शनैः-शनैः अपना कार्य=सर्जनरूप यज्ञ का आरा किया और शनैः-शनैः सर्जन प्रक्रिया बढ़ती गई। इस प्रकार यज्ञ असुरों से देवों के हाथ में आ गया।’’

इस पूरे प्रकरण में पं. युधिष्ठिर जी  यज्ञ को विस्तृत रूप में देख रहे हैं। प्रलय और निर्माण इन दोनों को यज्ञ रूप में देखा है। सृष्टि का प्रलय होना, क्षय होना जब प्रारभ होता है, तब उसको ध्वंसनात्मक यज्ञ कहा है। असुर बिगाड़ने वाले होते हैं बनाने वाले नहीं। इस आसुरी स्वभाव को देख सृष्टि प्रलयावस्था में आसुरी शक्तियों का प्रबल होना माना है। ये आसुरी शक्ति प्रलय काल के मध्य तक प्रबल रहती हैं और वे आसुरी शक्तियाँ इस जगत् को नष्ट करने में लगी रहती हैं, इसी को ध्वंसनात्मक यज्ञ कहा है।

प्रलय के मध्यकाल के बाद धीरे-धीरे देव अर्थात् दैवी शक्तियाँ सक्रिय हो जाती हैं। देव अर्थात् निर्माण करने वाली शक्तियाँ जो बनाने वाली, बिगाड़ने वाली नहीं। सृष्टि निर्माण से पहले ध्वंसनात्मक यज्ञ असुर कर रहे थे, उस यज्ञ को शनैः-शनै-धीरे-धीरे देवों ने ले लिया हैं अर्थात् निर्माण प्रक्रिया को आरा कर दिया। इस सृष्टि काल में दैवी शक्तियाँ कार्य करती हैं। इस प्रकार शास्त्र के आधार पर पं. मीमांसक जी  ने सृष्टि प्रलय और सृष्टि निर्माण को यज्ञ रूप में कहा है।

ये देवासुर प्रक्रिया हम अपने ऊपर, समाज, राष्ट्र में कहीं भी देख सकते हैं। हमारे मन में अच्छे-बुरे दोनों विचार चलते रहते हैं। मन के अन्दर कभी बुरे विचार अधिक प्रबल होते हैं, जिससे हम टूटते जाते हैं, क्षय को, पतन को प्राप्त होते हैं। ये आसुरी शक्ति का प्रााव है। और जब हम अच्छे विचारों से ओत-प्रोत होते हैं, तब हमारा निर्माण हो रहा होता है, उस समय हम पतन को प्राप्त न हो श्रेष्ठता को प्राप्त होते हैं। जैसे सृष्टि निर्माण और प्रलय प्रक्रिया में देव और असुर कोई व्यक्ति विशेष नहीं होते। वहाँ निर्माण और प्रलय में शक्ति विशेष लगती है, होती है, उसको देव और असुर कहा है, वैसे ही हमारे मन के अच्छे विचार देव हैं और बुरे विचार असुर। असुरों का काम पतनोन्मुख करना और देवों का काम उत्थान की ओर ले जाना है।

समाज राष्ट्र में भी दो प्रकार के मनुष्य देखे जाते हैं, सज्जन और दुर्जन। सज्जन देव हैं जो समाज राष्ट्र का भला चाहते हैं, भला करते हैं और  दुर्जन असुर हैं जो कि समाज राष्ट्र के निर्माण में बाधा डालते रहते हैं। इस प्रकार इसको भी यज्ञ रूप में देखा जा सकता है

लौकि क इतिहास की दृष्टि से पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी  इसी पुस्तक के पृष्ठ 180 पर लिखते हैं, ‘‘असुर आरभ में श्रेष्ठ चरित्रवान् थे। प्रजापति कश्यप ने इनकी श्रेष्ठता और ज्येष्ठता के कारण पृथिवी का शासन इन्हें दिया। इन्हीं असुरों ने वेद के अनुसार वर्णाश्रम-विभाग और यज्ञों का प्रवर्तन किया । शासन अथवा विशेषाधिकार मिल जाने पर अंकुश न रखा जाय तो मनुष्य की मति धीरे-धीरे विकृत होने लगती है। इसी सिद्धान्त के अनुसार असुरों में गिरावट आयी। असुर शद, जो पहले श्रेष्ठ अर्थ (असु+र=प्राणों से युक्त=बलवान्) का वाचक था, वह उनके  निकृष्ट आचरण से निकृष्ट का बोधक बन गया।………..‘पूर्वे देवाः’ यह असुरों के पर्यायवाची नामों में उपलध होता है।’’

यहाँ असुरों के श्रेष्ठ होने से प्रजापति ने उनको पृथिवी का शासन दिया ऐसा लिखा है, दूसरे स्थान पर स्वायंभुव मनु का पुत्र मरीचि प्रथम क्षत्रिय राजा हुआ- यह लिखा है। इन दोनों कथनों में विरोध दिख रहा है। इससे ऐसा विचार किया जा सकता है कि जो मीमांसक जी ने शास्त्र प्रमाणयुक्त लिखा है। वह क्षत्रिय राजा के विषय में न हो और जो दूसरा वचन है उससे तो स्पष्ट है ही की प्रथम क्षत्रिय राजा मरीचि हुआ। फिर भी यह इतिहास का विषय है, इसमें हम निश्चय पूर्वक नहीं कह सकते।

यज्ञ ध्वंसनात्मक भी होता है उसका आलंकारिक रूप को सृष्टि प्रलय की स्थिति को उपरोक्त प्रकरण में हमने देखी। इतिहास में भी ध्वसनात्मक यज्ञ किये जाते रहे हैं। एक राजा दूसरे राजा हराने नष्ट करने के लिए इस प्रकार के यज्ञों का आयोजन करता था। इस यज्ञ में उसको सफलता कितनी मिलती थी- यह तो कहा नहीं जा सकता, किन्तु ध्वंसनात्मक यज्ञ तो होता था। किसी को नष्ट करने के लिए ध्वसंनात्मक का प्रचलन था।

अग्नि, वायु…….इनको वेदों का ज्ञान किसने दिया। : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका (श्री घूडमल प्रहलाद कुमार आर्य धर्मार्थ न्यास) द्वारा प्रकाशित छप रहा था उसमें पेज नं. 24 पर लिखा है ब्रह्मा जी ने अग्नि, वायु, रवि व अङ्गिरा से वेद पढे।

इसका मतलब ही ब्रह्मा जी का जन्म अग्नि, वायु… आदि के बाद हुआ है।

(1) अग्नि, वायु…….इनको वेदों का ज्ञान किसने दिया।

(2) ओ3म् का जाप करके हम ब्रह्मा जी की उपासना करते हैं उपनिषद में भी ओ3म्ाम् ब्रह्मा तीनों को एक ही बताया गया है। गीता में भी कृष्ण अर्जुन को कहते हैं ओ3म् का जप करके उस ब्रह्मा को प्राप्त कर,

जिज्ञासा यह है कि ओ3म् का जाप करके ब्रह्मा जी की उपासना करते हैं । ब्रह्माजी से पहले अग्नि, वायु….आदि हुये क्योंकि ब्रह्माजी ने उनसे वेदों का ज्ञान प्राप्त किया, फिर जिसने अग्नि, वायु, रवि व अङ्गिरा को वेदों का ज्ञान दिया उसका जाप किस शब्द या श्लोक से करे क्योंकि सभी जगह तो ब्रह्मा जी का ही जिक्र आता है।

समाधान-(1) (क)किसी विषय को स्पष्ट समझने के लिए पूर्वापरप्रसंग को ठीक से जानना, विषय वस्तु वाले ग्रन्थ को सपूर्ण पढ़ना व उस ग्रन्थ के लेखक की अन्य कृतियाँ भी पढ़ना आवश्यक हो जाता है। इतना करने पर प्रायः हमें बात स्पष्ट समझ में आ जाती है इतना करने पर भी समझ में न आवे तो योग्य विद्वान् से पूछ कर स्पष्ट कर लें। बहुत कुछ जिज्ञासाओं का समाधान तो हमारे द्वारा ठीक प्रकार से अध्ययन करने में ही हो जाता है।

आपने जो संदर्भ दिया है वह संर्दा सर्वथा ठीक है भूल समझने की है, सर्वप्रथम वेद पढ़ने वाला ऋषि ब्रह्मा ही हुआ है। महर्षि ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा इन चारों ऋषियों से चारों वेद पढ़े। उन चारों ऋषियों को स्वयं परमात्मा ने वेद का ज्ञान दिया क्योंकि आदि सृष्टि में ये चार आत्माएँ अत्यन्त पवित्र थी। इनके अन्दर साक्षात् परमेश्वर से वेद ज्ञान ग्रहण करने की पात्रता थी। आपने जो पूछा हैं ‘इन चारों को ज्ञान किसने दिया’ उसका उत्तर यहाँ आ गया है।

ब्रह्मा व इन चार ऋषियों में ये भिन्नता है कि सीधा परमेश्वर से ज्ञान लेने की पात्रता इन चारों में थी जबकि ब्रह्माजी ने सीधा परमेश्वर से ज्ञान ग्रहण न कर ऋषियों से ग्रहण किया है।

आपने कहा अग्नि आदि ऋषि पहले हुए और ब्रह्मा जी बाद में हुए। इसके लिए महर्षि दयानन्द का कथन है कि ये सभी ऋषि आदि सृष्टि में हुए अर्थात् सृष्टि के प्रारभ में हुए।

(ख) आप भाषा के प्रयोग को समझें, भाषा में एक ही शब्द अनेक वस्तुओं का कहने वाला हो सकता है। जैसे एक ‘गो’ शब्द गाय, वहणी, इन्द्रियाँ, पृथिवी आदि को कहता है। वैसे ही ‘ब्रह्मा’ शब्द भी अनेक का द्योतक हो सकता है। जिस ब्रह्मा ने चारों वेद पढ़े वह एक व्यक्ति विशेष मनुष्य है। किन्तु जिस ब्रह्मा की उपासना करने का प्रसंग है वहाँ कोई मनुष्य रूपी व्यक्ति विशेष नहीं अपितु वहाँ तो उपासना परमेश्वर की करनी है और परमेश्वर के असंय नामों में एक नाम ‘ब्रह्मा’ भी है, जिसका अर्थ महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं- ‘‘(बृह् बृहि वृद्धौ) इन धातुओं से ब्रह्मा शब्द सिद्ध होता है। थोडखिंल जगन्निर्माणेन बर्हति (बृंहति) वर्द्धयति स ब्रह्मा, जो सपूर्ण जगत् को रचके बढ़ाता है इसलिए परमेश्वर का नाम ‘ब्रह्मा’ है।’’ स.प्र.स. 1

ब्रह्मा परमेश्वर का एक नाम है, इसके अनेकों प्रमाण हैं-

स ब्रह्मा स विष्णुः………..।। कैवल्य उपनिषद् .1.8

इन्द्रो ब्रह्मेन्द्र……………।। ऋग्वेद 8.16.7

सोमं राजनं…………..ब्रह्माणंच बृहस्पतिम्।।

– साम. 1.1.10.1

ओं खं ब्रह्म।। यजु. 40.17

यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह।

ब्रह्मा मा तत्र नयतु ब्रह्मा ब्रह्म दधातु मे।।अथर्व-19.43.8

इन सभी वेद शास्त्रवचनों में ईश्वर का एक नाम ब्रह्म= ब्रह्मा कहा है। जिस परमेश्वर का ब्रह्मा नाम है,उस परमेश्वर का मुय नाम ‘ओ3म्’ है।  इस ‘ओ3म्’ के जप से परमेश्वर ब्रह्म की उपासना होती है न कि चारों वेद को पढ़ने वाले ब्रह्मा नाम वाले महर्षि की। यदि अध्ययन करने वाला प्रकरणविद् हो तो वह स्वयं समझ सकता है कि ‘ब्रह्मा’ शब्द परमेश्वर को कह रहा है या ऋषि रूप व्यक्ति विशेष को।

जिस परमेश्वर ने अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा ऋषियों को ज्ञान दिया उसकी उपासना ‘ओ3म्’ शब्द से करनी चाहिए अथवा परमेश्वर के जो अनन्त गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर नाम हैं उनसेाी ईश्वर की उपासना की जा सकती है। जैसे न्यायकारी, दयालु, सर्वरक्षक, पवित्र आदि नामों से उपासना कर सकते हैं। मन्त्रों के माध्यम से भी परमेश्वर की उपासना की जाती है। जिस मन्त्र में परमेश्वर की स्तुति हो, प्रार्थना हो उस मन्त्र से उपासना कर सकते हैं, जैसे गायत्री मन्त्रादि।

जो उपासना विषय में ब्रह्मा जी का जिक्र है वह मनुष्य रूपी ब्रह्मा का नहीं अपितु परमात्मा रूपी ब्रह्मा का जिक्र मानना चाहिए। महर्षि दयानन्द की यह बात सदा स्मरण रखें कि जहाँ भी उपासना करने की बात आती है वहाँ उपासनीय केवल परमात्मा ग्रहण करना चाहिए अन्य का नहीं। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

 

सृष्टि उत्पति : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा- सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में वर्णित मनुष्य जाति की आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात तिबत में हुई, जिसमें श्रेष्ठ विद्वान् लोग आर्य और मूर्ख अनार्य (अनाड़ी) कहलाये। आर्य और अनार्य में सदा लड़ाई बखेड़ा होने के कारण आर्य लोग सर्व भूगोल में उत्तम इसाूखण्ड को जानकर सृष्टि की आदि के कुछ काल पश्चात् तिबत से सीधे इस देश में बस गये, जिसका नाम आर्यावर्त हुआ। इससे पूर्व इस देश का क ोई भी नाम नहीं था और न कोई आर्यों से पूर्व इस देश में बसते थे। अतः आर्य जाति का उद्गम व आदि उत्पत्ति-स्थल तिबत है और सभवतः वही हमारे चारों वेद का ईश्वरीय ज्ञान ऋषियों को प्राप्त हुआ। कृपया उक्त तथ्यों के प्रमाण से अवगत कराने का कष्ट करें। आज दिन भी तिबत में हमारे तीर्थ-स्थल कैलाश, मानसरोवर स्थित हैं। जहाँ  प्रतिवर्ष हजारों भारतवासी तीर्थ यात्रा व दर्शन हेतु जाते हैं। इस तरह सारा तिबत हमारा आदि जन्म स्थल है। अतः सारा तिबत हमारा (भारत का) है। चीन उस पर जबरन काबिज है।

समाधान महर्षि दयानन्द ने मानवोत्पत्ति तिबत पर कही है। महर्षि प्रश्न पूर्वक लिखते हैं- ‘‘मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई?

उत्तर – त्रिविष्टप अर्थात् जिसको तिबत कहते हैं।’’ आपने महर्षि के इस स्थल को लेकर प्रश्न पूछा है कि इसका आधार है या नहीं। इस विषय में जैसी जानकारी मुझे ‘सत्यार्थ भास्कर’ से प्राप्त हुई है, वैसा यहाँ लिखता हूँ।

जैसा बिना बीज के, निर्जीव रेत में जड़ और अंकुर नहीं फूटते। बीजाी अपने आप ही आप नहीं निकलता, किन्तु खोज करके लाया जाता है और अनुकूल स्थान पर बोया जाता है, जहाँ जलवायु पौधे के अनुकुल होता है, उसका खाद्य पर्याप्त मात्रा में मिलता है और आंधी-ओले से उसे सुरक्षित रखा जा सकता है। माली पहले एक क्यारी में पौध तैयार करता है फिर वहाँ से पौधे ले-लेकर यथास्थान सारी फुलवारी में रोपता है और आवश्यकतानुसार बाहर भी भेजता है। तात्पर्य यह है कि बीज सर्वत्र पैदा नहीं होता, एक ही स्थान से अन्यत्र फैलता है। इसी बीज क्षेत्र न्याय के अनुसार मनुष्य भी किसी एक ही स्थान पर पैदा हुआ और फिर संसार भर में फैल गया। प्रारभ में मनुष्य भी किसी एक ही स्थान पर पैदा हुआ और फिर संसार भर में फैल गया। प्रारभ में मनुष्य भी ऐसे स्थान पर हुआ होगा, जहाँ का जलवायु उसके अनुकूल हो, खाद्य सामग्री सुलभ हो और जहाँ वह अधिक से अधिक सुरक्षित रह सके। मनुष्य ही नहीं, पशु, पक्षी, वनस्पति आदि के लिए भी ऐसा ही स्थान उपयुक्त होगा। आदि सृष्टि के लिए उपयुक्त स्थान की योग्यता –

  1. जो सबसे ऊँचा स्थान हो, 2. जहाँ सर्दी-गर्मी जुड़ती हो, 3. जहाँ मनुष्य के खाद्य फल वनस्पति आदि प्रचुरता से उपलध हों, 4. जिसके आसपास सब रंग-रूपों के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण हो, 5. जिसका नाम सबके स्मरण का विषय हो।

अब इन पाँचों बिन्दुओं को विस्तार से देखते हैं-

  1. 1. हिमालय निर्विवाद रूप से सबसे ऊँचा स्थान है। कहते हैं कि पहले सपूर्ण पृथिवी जलमग्न थी। उस जल से सबसे पहले वही भूमि निकली उसी में वनस्पति उत्पन्न हुई और उसी पर सबसे पहले मनुष्यादि प्राणियों की सृष्टि हुई।

2.संसार में ऋतुएँ चाहे कितनी कही जाएँ, किन्तु सर्दी और गर्मी दो उनमें मुय हैं। यही कारण है कि समस्त भूमण्डल में सर्द और गर्म दो ही प्रकार के देश पाये जाते हैं। कुछ प्रदेश दोनों के मिश्रण से बने पाये जाते हैं, तो भी दोनों में से एक की प्रधानता रहती है। कश्मीर, नेपाल, भूटान और तिबत आदि प्रदेश बसे हुए हैं, इनके निवासी उसी सर्दी-गर्मी का अनुभव करते हैं। इसलिए मानव-सृष्टि के लिए हिमालय ही सर्वाधिक उपयुक्त स्थान ठहरता है। वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य के आदि युग में मानसरोवर के आसपास का क्षेत्र शीतोष्ण जलवायु युक्त था। भारतीय प्राचीन साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता है।

  1. 3. मनुष्य का सर्वाधिक खाद्य दूध और फल है- पयः पशूनां रसमोषधीनाम्। दूध पशुओं से और फल वृक्षों से मिलते हैं। जब मनुष्य दूध और फल के बिना और पशु वनस्पति के बिना नहीं रह सकते तो मनुष्य ऐसे देश में उत्पन्न नहीं हो सकता, जहाँ ये पदार्थ उपलध न हों। हिमालय ऐसा स्थान है, जहाँ मनुष्य के लिए अपेक्षित समस्त पदार्थ सहज उपलध है।
  2. 4. मूल स्थान के आसपास ऐसी विस्तृत भूमि होनी चाहिए, जहाँ सब रंग-रूपों के विकास की स्थिति हो और जहाँ रहकर मनुष्य संसार भर में रहने की योग्यता प्राप्त करके पृथिवी में सर्वत्र फैल सके। हिमालय से लगता भारत ऐसा देश है, जहाँ सब छहों ऋतुएँ वर्तमान रहती हैं। इस सर्वगुण सपन्न देश में सब रंग रूप के आदमी निवास करते हैं। ऐसे देश के सामीप्य के कारण भी यही प्रतीत होता है कि हिमालय (तिबत) पर ही मनुष्य की आदि सृष्टि हुई।
  3. 5. सभी देशों में बसने वालों को किसी न किसी रूप में हिमालय की स्मृति बनी हुई है। भारतीय आर्यों को हिमालय से और ईरानी आर्यों को भारत से आने की स्मृति आज भी बनी हुई है। चरक संहिता के प्रमाण से सिद्ध है कि आर्य लोग हिमालय (तिबत) से ही भारत आये थे और बीमार होकर एक बार फिर अपने स्थान हिमालय को लौट गये थे। इतना ही नहीं, कुछ समय बाद उनके फिर लौटकर भारत में बसने का उल्लेख मिलता है। चरक संहिता में लिखा है-

ऋषयः खलु कदाचिच्छालीना यायावराश्च ग्रायौषध्याहाराः सन्तः सापन्निका मन्दचेष्टाश्च नातिकल्याश्च प्रायेण बभूवुः। ते सर्वा समिति कर्त्तव्यतानामसमर्थाः सन्तो ग्रायवासकृतमात्मदोषं मत्वा पूर्वनिवासमपगतग्रायदोषं शिवं पुण्यमुदारं मेध्यगयसुकृतिभिर्गङ्गाप्रभवममरगन्धर्व-किन्नरानुचरितमनेक रत्ननिचयमचिन्त्याद्भुतप्रभवं ब्रह्मर्षिसिद्धचरणानुचरितं दिव्यती र्थैषधिप्रभवमतिशरव्यं….. महर्षयः।। चिकित्सा स्थान. 4/3

इन चरक वचनों से मानव हिमालय पर था, बाद में मैदानी क्षेत्र में बस गया, यह वर्णन है। इनसे सिद्ध हो रहा है कि मानवोत्पत्ति सृष्टि के आरभ में हिमालय पर ही हुई।

हिमालय पर प्राणियों के शरीरांश बहुतायत से पाये जाते हैं। पृथिवी पर ऐसा कोई स्थान नहीं है जो हिमालय स्थित प्राणियों के शेषांगों से अधिक पुराने चिह्न दे सके। इससे भी प्रमाणित होता है कि हिमालय पर मनुष्य से पहले उत्पन्न होने वाले और उनके जीवनाधार वृक्ष और गौ आदि पशु पूर्वातिपूर्व काल में उत्पन्न हो गये थे, अतएव हिमालय आदि सृष्टि उत्पन्न करने की पूर्ण योग्यता रखता है। (हिमालय पर)

प्रारभ में आर्य हिमालय तिबत में ही उनका मूल उत्पत्ति स्थान तिबत रहा, बाद में निचले मैदानी क्षेत्र आर्यावर्त में आकर बस गये। आर्यावर्त की सीमा महर्षि मनु ने लिखी है-

आ समुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।

तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः।। मनु. 2.22

अर्थात्- पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र पर्यन्त विद्यमान उत्तर में हिमालय और दक्षिण में स्थित विन्ध्याचल का मध्यवर्ती देश है, उसे विद्वान् लोग आर्यावर्त कहते हैं। इसी मनु के श्लोक के आधार पर महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में आर्यावर्त देश की सीमा निर्धारण की है- ‘‘हिमालय की मध्य रेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने प्रदेश हैं, उन सबको आर्यावर्त इसलिए कहते हैं कि यह आर्यावर्त देश देवों और विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त कहलाया।’’ आर्यावर्त की सीमा में हिमालय भी है और तिबत हिमालय पर है, इस आधार पर आप कह सकते हैं कि तिबत हम आर्यों का स्थान है। इस लेख में चरकादि का प्रमाण दिया है। ये प्रमाण आर्यों का मूल स्थान हिमालय को सिद्ध करते हैं। महर्षि का तो प्रत्यक्ष वचन है ही। यह तो निश्चित है कि तिबत पर चीन ने बलात् अधिकार जमा रखा है। जबकि अधिकार हम भारतीयों का होना चाहिए। ऐतिहासिक दृष्टि से भी और हमारी भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि से भी। अलम्।

– आचार्य सोमदेव, ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

5. सन् 1875 के बाद अर्थात् 140 साल व्यतीत हो जाने के बाद भी विवाहदि संस्कार 90/95 प्रतिशत पौराणिक रीति से हो रहे हैं। यदि लग्न पत्रिका आदि की जरुरत पड़े तो वही हाथी की सूण्ड वाले गणेश की छपी मिलती है। क्या आर्य समाज कोई ऐसी योजना बना रहा है कि कम से कम जिला स्तर पर ऐसी पत्रिका या वैदिक कलेण्डर या पुरोहित उपलध हो जाए।

(ङ) इस विषय में आर्य समाज का कुछ प्रयत्न तो रहा है, कहीं-कहीं आर्य समाजों में बिना गणेश की लग्न पत्रिका मन्त्रों से युक्त भी मिलती है। इसके लिए योजना हो सकती है जो कि शीर्षस्थ सभाओं की धर्मार्य सभा का कार्य है।

लग्न पत्रिका को तो आप व्यक्तिगत रूप से भी क्रियान्वित कर सकते हैं। कुछ काम हम अपने स्तर पराी कर सकते हैं, हमारे द्वारा किये जा सकते हैं। कुछ कार्य सभाएँ ही कर सकती हैं किन्तु सभाओं की आज कथा ही क्या कहें, इनको जो करना था 140 वर्षों में वह न कर कुछ और ही कर रही हैं जो कि आपको व अन्य संवेदनशील आर्यों को पीड़ित करती हैं।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

. क्या वर्तमान में अपने देश भारत या अन्यत्र कहीं भी पृथ्वी पर अध्ययन-अध्यापन की ऐसी व्यवस्था है, जहाँ पर चारों वेदों का ज्ञान कराया जाता हो। यदि हाँ तो कहाँ-कहाँ पर ऐसी व्यवस्था है। 4. आर्य समाज के धुंआधार प्रचार से और वेदों का डंका पीटने या बजाने से पौराणिक भी जाग्रत हो गए, तो अब आर्य सामाज के कितने केन्द्र चारों वेद पढ़ा रहे हैं और पौराणिकों के कितने केन्द्र हैं।

) वर्तमान में अपने देश व अन्यत्र चारों वेद पढ़ाने की व्यवस्था है या नहीं इस विषय में मैं नहीं जानता हाँ वर्तमान में आर्य समाज के वरिष्ठ विद्वान् आचार्य श्री सत्यानन्द वेदवागीश चारों वेदों को पढ़ाने का सामर्थ्य रखते हैं। उनसे एक युवा विद्वान् आचार्य सनतकुमार जी ने चारों वेद पढ़े हैं और वे अन्य को पढ़ाने का प्रयास करते हैं। किसी गुरुकुल संस्था आदि की जानकारी मुझे नहीं है। वेद कण्ठस्थ कराने वाली संस्थाएँ तो हैं जो कि प्रायः पौराणिकों की हैं। आपके बिन्दु 4 (घ) का उत्तर भी इसी में आ गया है।

2. यदि चारों वेद संहिताएं विदेश से मंगवाए गए तो फिर यह क्यों कहा जाता है कि स्वामी दयानन्द ने 2 वर्ष 10 महीने में अपने गुरु विरजानन्द जी से चारों वेदों का अध्ययन किया और शंकाओं का समाधान किया। जब वेद मंगवाए ही बाद में हैं तो अपने गुरु जी से कैसे पढ़े? और यदि वेद पहले ही उपलध थे तो मंगवाने की क्या जरूरत थी। इससे यह भी प्रतीत होता है कि स्वामी दयानन्द जी ने भी अपने गुरु जी के पास से शिक्षा पूरी करने के बाद ही चारों वेद पढ़े। गुरु जी के पास तो जो आधे अधूरे उपलध थे वे ही पढ़ पाए। फिर पूरे वेद बाद में पढ़े हैं तो स्वामी जी को पढ़ाने वाले अन्य कौन गुरु मिले जो स्वामी विरजानन्द जी से भी भली प्रकार पढ़ा सकते थे।

ऊपर हमने देखा कि वेद हमारे पास पहले ही उपलध रहे हैं, यह भ्रान्ति फैलाई गई कि वेद जर्मन में थे भारत में नहीं। महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द से चारों वेद को पढ़ा यह वर्णन कहीं देखने को नहीं मिलता हाँ कुछ वक्ता लोग इस प्रकार की अप्रमाणिक बातें बोलते हैं। महर्षि ने गुरु विरजानन्द से 2 वर्ष 10 महीने में मुय रूप से व्याकरण महाभाष्य पढ़ा था। हाँ जहाँ कहीं व्याकरण में वेद का विषय आया है वहाँ गुरुवर ने वेद मन्त्रों के उद्धरण अवश्य दिये होंगे। इस विषय में डॉ. रामप्रकाश जी द्वारा लिखित ‘गुरु विरजानन्द दण्डी जीवन एवं दर्शन’ पुस्तक की पंक्तियाँ लिखता हूँः- ‘‘कुछ लेखक मानते हैं कि दयानन्द ने दण्डी जी से केवल व्याकरण पढ़ा और कुछ नहीं परन्तु यह कैसे सभव है कि जिस आर्ष अनार्ष ग्रन्थ निर्णय के लिए पूरा एक दशक (1859-1868) लगा दिया तथा किसी भी पण्डित से एतद् विषयक चर्चा अथवा शास्त्रार्थ का अवसर हाथ से न जाने दिया, वह चिन्तन वे अढ़ाई साल की लबी अवधि में अपनी आशा के केन्द्र बिन्दु दयानन्द से सांझा न करते। वे तो व्याकरण मात्र को मानते ही वेदादि के अध्ययन के लिए थे। अतः संहिता विशेष भले ही न पढ़ाई हो पर यत्र तत्र वेद से उदाहरण देकर व्याकरण समझाना तो स्वभाविक था। स्वामी दयानन्द ने भी गुरु से जितना पढ़ा, उससे कहीं अधिक सीखा। यद्यपि अभी वैदिक साहित्य का सपूर्ण ज्ञान करना शेष था परन्तु उन्हें आर्ष – अनार्ष ग्रन्थों के विवेक की सूझ अवश्य प्राप्त हुई।’’

इस समस्त कथन से ज्ञात हो रहा है कि महर्षि ने गुरु विरजानन्द जी से चारों वेद संहिताओं का अध्ययन नहीं किया अपितु आंशिक रूपसे कुछ अध्ययन किया और मुय रूप से व्याकरण का अध्ययन किया। चारों वेदों का अध्ययन महर्षि ने व्यक्तिगत रूप से अपनी योग्यता के आधार पर स्वयं किया। इस आधार पर हम यह नहीं कह सकते कि गुरु विरजानन्द के समय वेद आधे अधूरे थे, ऊपर इस विषय में लिखा जा चुका है।