जम्मू के शहीद वीर रामचन्द्र

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जम्मू के शहीद वीर रामचन्द्र           

-डा. अशोक आर्य

आर्य समाज के वीरों ने विभिन्न समय पर विभिन्न प्रकार ए बलिदानी वीर पैदा किये । किसी ए धर्म की रक्शा के लिए, किसी ने जाति की रक्शा के लिए , किसी ने जाति के उत्थान  मे लिए अपने बलिदान  दिए । एसे ही बलिदानियों में एक आर्य बलिदानी हुए हैं वीर राम चन्द्र जी । जम्मू रियासत के कटुआ जिला की तहसील हीरानगर के लाला खोजूशाह महाजन नामक खजान्ची जी ए यहां दिनांक १९ आषाट स्म्वत १९५३ को जन्मे बालक ने मेघ जाति के उद्धार के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया था ।

बालक रमचन्द्र के आट भाई और एक बहिन थी । भाई बहिनों में सबसे बडे रामचन्द्र ने मिडिल तक की शिक्शा सदा अपनी कक्शा में प्रथम आते हुए पास व पूर्ण की । जब सरकार के कार्याल्यों में सब कर्य डोगरी भाषा के स्थान पर होने लगा तो पिता के स्थान पर खजान्ची का कार्य इस बालक को दिया गया ।

राम चन्द्र को आरम्भ से ही समाचार पत्र पटने व धर्म के कार्य करने में अत्यधिक रुचि थी । जब वह आर्य समाज के सत्संगों में जाने लगे तो आर्य समाज के कार्यों में इन्हें खूब आनन्द आने लगा तथा शीघ्र ही प्रमुख आर्यों में सम्मिलित हो गये  । जब आप की बदली बसोहली स्थान पर हुई तो इस स्थान पर आप ने आर्य समाज की निरन्तर दो वर्ष तक खूब सेवा की । तदन्तर आप बद्ल कर कटुआ आ गये । यह वह स्थान था कि जहां आर्य समाज का काम करना मौत को निमन्त्रण देने से कम न था किन्तु आप ने इस सब की चिन्ता किए बिना आर्य समाज का काम जारी रखा तथा अछूतोद्धार के कार्य व शुद्धि में भी लग गए । जब विरोध जोर से होने लगा तो आप को बदल कर १९१८  इस्वी को साम्बना भेज दिया गया । यहां पर जाते ही आपके यत्न से आर्य समाज की स्थापना हो गई तथा जब देश भर में एन्फ़्ल्यूऎन्जा का रोग फ़ैला तो आप ने सेवा समिति खोलकर रोगियों की खूब सेवा की । आप ने आर्य समाज के लिए बडे से बडे खतरों का भी सामना किया । आर्य समाज के प्रचार के कारण आपको अकेले ही वहां के राजपूतों और ब्राह्मणों के विरोध का सामना करना पडा किन्तु आर्य समाज के उत्सव में आपने किसी प्रकार की कमीं  न आने दी तथा इसे उत्तम प्रकार से सफ़ल किया ।

रामचन्द्र जी कांग्रेस के कार्यों के प्रति भी अत्यधिक स्नेह रखते थे । इस के वार्षिक समारोह में लगभग एक दशाब्दि तक निरन्तर जाते रहे ।जब पंजाब में मार्शल ला लगा हुआ था तो सरकारी कर्मचारी होते हुए भी यहां के समाचार आप गुप्त रुप से अन्य प्रान्तों में भेजते रहे । आप अपनी नौकरी को भी देश से उपर न मानते थे । यह ही कारण था कि १९१७ में जब आप को अम्रतसर जाने की सरकार ने सरकारी कर्मचारी होने के कारण अनुमति न दी तो आप ने तत्काल अपनी सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे दिया किन्तु उनकी उत्तम सेवा को देखते हुए तहसीलदार उन्हें छोडना नहीं चाहते थे , इस कारण उन्हें अम्रतसर जाने की अनुमति दे दी गई । साम्बा क्शेत्र के लोग तो आप को देश सेवक के रुप मे ही जानते थे तथा इस नाम से ही आप को पुकारते थे ।

जब १९२२ में आप की नियुक्ति अखनूर में हुई तो वहां जा कर आप ने पाया कि यहां के लोग छूतछात को मानने वाले थे । यहां के लोग मेघ जाति के लोगों को अत्यधिक घ्रणा से देखते थे । रामचन्द्र जी ए इनका उत्थान करने क निश्चय किया तथा इन के लिए एक पाट्शाला आरम्भ कर दी । अब आप अपनी सरकारि सेवा के अतिरिक्त अपना पूरा समय इन पहादों मेम घूम घूम कर मेघों के दु:ख , दर्द के साथी बन उनकी सेवा, सहायता तथा उन्हें पटाने व उनकी बिमारी मेम उनकी सहायता करने लगे ।

इस सब का परिणाम यह हुआ कि जो लोग दलितों को उन्नत होता हुआ न देख सकते थे , उन्होंने सरकार के पास आप की शिकायते भेजनी आरम्भ कर दीं , मुसलमानों को आप के विरोध के लिए उकसाने लगे , आप के व्याख्यानों का भी विरोध आरम्भ कर दिया । इतने से ही सब्र न हुआ तो कुछ लोग लाटियां लेकर आप पर आक्र्मण करने के लिए आप के घर पर जा चटे किन्तु पुलिस ने उनका गन्दा इरादा सफ़ल न होने दिया । परिणाम स्वरुप १९२२ इस्वी में इन लोगों ने आर्य समाजियों का बाइकाट कर दिया , जो चोबीस दिन तक चला किन्तु एक दिन जब रामचन्द्र जी कहीं अन्यत्र गये हुए थे तो पीछे से सरकारी अधिकारियों के दबाब में आकर वहां के आर्य जन झुक गये तथा यह बात स्वीकार कर ली कि मेघों की पाटशाला गांव से दूर ले जावेंगे  । लौटने पर रमचन्द्र जी ने इस समझौते के सम्बन्ध सुना तो उन्होंने इसे स्वीकार करने से साफ़ इन्कार कर दिया । इस सम्बन्ध में लम्बे समय तक गवर्नर , वजीर आदि से पत्र व्यवहार होता रहा ।

रामचन्द्र जी ने जिस प्रकार मेघों की नि:स्वार्थ भाव से सेवा की , इस कारण मेघ लोग उन पर अपनी जान न्योछावर करने लगे  । इधर रामचन्द्र जी भी अपने आप को मेघ कहने लगे, चाहे आप महाजन ही थे । पाटशाला का निजी भवन बनाने की प्रेरणा से मेघ पण्डित रूपा तथ भाई मौली ने अपनी जमीन दान कर दी । मुसलमानों व सरकारी अधिकारियों के विरोध की चिन्ता न करते हुए आप ने इस के भवन निर्माण के लिए अपील की निर्माण के पश्चात १९२२ में ही इस वेद मन्दिर का प्रवेश संस्कार सम्पन्न हो गया । इस पाटशाला के खुलने से मेघ अत्यधिक उत्साहित हुए । यह एक सफ़लता थी , जिसने दूसरी उपलब्धि का मार्ग प्रशस्त कर दिया । अब रामचन्द्र जी को अन्य स्थानों से भी पाटशाला खोलने के लिए आमन्त्रण आने लगे कि इस मध्य ही आपको जम्मू स्थानन्तरित कर दिया गया ।  किन्तु अभी यहां की पाट्शाला का कार्य प्रगति पर थ इस कारण आपने चार महीने का अवकाश ले लिया।

बटोहडा से मेघ लोगों ने इन्हें निमन्त्रित किया । यह स्थान अखनूर से मात्र चार मील दूर है आप अपने आर्य बन्धुओं तथा विद्यार्थियों सहित हाथ्में औ३म की पताकाएं लेकर, भजन गाते तथा जय घोष लगाते हुए चल पडे किन्तु इस शोभायात्रा के बारे में सुन वैसे देख विरोधी भडक उटे । आप को गालियां देते हुए अपमानित किया गया झण्डे छीन लिये तथा हवन कुण्ड भी तोड दिया । इस कारण इस दिन कोई कर्यक्रम नहीं हो सका किन्तु आप ने शीघ्र ही ४ जनवरी १९२३ को यहां बडे ही समारोह पूर्वक पाटशाला आरम्भ करने की योजना बना डाली । इसके लिए लाहौर से उपदेश्क भी आ गए । यह सब देख राजपूतों ने आप के जीवन का अन्त करने का निर्णय  लिया । इस निमित उन्होंने गांव में एक दंगल का आयोजन कर लिया ।

इधर जम्मू से रामचन्द्र जी भी अपने आर्य बन्धुओं व विद्वानों सहित बटौहडा के लिए रवाना हो गए । इनके साथ लाला भगतराम,लाला दीनानाथ, लाला अनन्तराम, ओ३मप्रकाश तथा स्त्यार्थी जी आदि थे । मार्ग में ही आर्योपदेशक सावन  मल जी भी अपने दल के साथ आ कर मिल गए । इस मध्य ही पता चला कि गांव में विरोधियों ने भारी षडयन्त्र रच रखा है तथ हालात बेहद खराब हैं । इस कारण लौट जाने का निर्णय लेकर यह सब वापिस चल पडे किन्तु इस की सूचना भी तत्काल गांव में राजपूतों को मिल गई । वह तो भडके ही  हुए थे अत: भगतू नामक एक व्यक्ति के नेत्रत्व में मुसलमान , गूजर डेट सौ के लगभग राजपूतों के सवारों व पैदल लोगों ने पीछे से इन पर आक्रमण कर दिया । सब पर लाटियां बरसाईं । सब और से एक ही आवाज आ रही थी कि खजान्ची को बचने नहीं देना । इस को मारो । यह सुन भगतराम जी उन्हें बचाने के लिए आगे आए किन्तु उन पर भी भारी मात्रा में लाटियों की मार पडी । अन्त में रामचन्द्र जी उनके हाथ आ गये तथा उन पर लोहे की छडों से प्रहार किया गया ।  वह जब बुरी तरह से घायल व बेहोश हो गये तो यह आक्रमण कारी इन्हें मरा समझ कर लौट गए ।

घायल व बेहोश वीर रामचन्द्र जी को अस्पताल में भर्ती किया गया । यहां निरन्तर छ: दिन तक बेहोश रहते हुए मौत से युद्ध करते रहे किन्तु अन्त में प्रभु की व्यवस्था ही विजयी हुई तथा मात्र २३ वर्ष की आयु में यह योद्धा आर्य समाज को अपना जीवन समझते हुए तथा दलितों को ऊंचा उटाने का यत्न करते हुए अन्त में दिनांक २० जनवरी १९२३ इस्वी तदानुसार ८ माघ १९७० को रात्रि के ११ बजे वीरगति को पराप्त हुआ ।

इस वीर योद्धा तथा आर्य समाज के इस धुरन्धर प्रचारक की स्म्रति में आर्य प्रतिनिधि सबा पंजाब ने कुछ प्रकल्प आरम्भ किये । इन प्रकल्पों के अन्तर्गत वीर रामचन्द्र जी की स्म्रति को बनाए रखने के लिए एक स्मारक बनाया गया । इस स्मारक के चार कर्य निर्धारित किये गए । जो इस प्रकार थे :-

१.      दलितो को उन्नत कर उन्हें स्वर्णों के समकश लना ।

२.      दलितों के लिए नि:शुल्क शिक्शा की व्यवस्थ करना ।

३.      दलितों मेम धर्म प्रचार करने की व्यवस्था करना ।

४.      दलितों में आत्म सम्मान की भावना पैदा करना ।

इस प्रकार का स्मारक बना कर वीर रामचन्द्र जी को आर्य समाज के महाधनों की श्रेणी में लाया गया । सभा की और से रामचन्द्र जी की स्म्रति में यहां प्रतिवर्ष एक मेला का आयोजन होने लगा । आर्य समाज के पुरुषार्थ तथा महाराज हरिसिंह जी के उदारतापूर्ण सहयोग से यह कार्य निरन्तर चलता रहा । आरम्भ में इस स्मारक के अधिष्टाता लाला अनन्तराम जी को बनाया गया । इस स्मारक स्थल पर बाद में एक कुंआ बन गया । यह स्मारक स्थल नहर से सटा हुआ नहर के किनारे पर ही बनाया गया था ।

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