वेदस्रोत से मानवीयमूल्य

वेदस्रोत से मानवीयमूल्य

शिवदेव आर्य

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

मो.—8810005096

 

सुख शान्तिमय जीवन यात्रा तथा परमानन्द के लिए परमपिता परमेश्वर ने सृष्टि के प्रारम्भ में वेदज्ञान की ज्योति प्रदान की, जिसके आलोक में जीवन श्रेय एवं प्रेयमार्ग पर सुचारूतया संचारित होता है। वेद प्रतिपादित जीवनपद्धति ही नैतिकता का सर्वोच्च आदर्श है। इन उच्चतम जीवनमूल्यों का वैदिक वाङ्मय  एवं परवत्र्ती भारतीय साहित्य में मनीषियों एवं कवियों द्वारा अनेक आख्यानों उपाख्यानों द्वारा चारु चित्रण किया गया है। आपस्तम्ब, बौधायन तथा गौतम आदि धर्मसूत्रकारों द्वारा चारों वर्णों एवं आश्रमियों के कर्तव्यों का विधिवत् उल्लेख किया गया है। मनु महाराज, याज्ञवल्क्य, पाराशर आदि स्मृतिकारों ने श्रुतिवाक्यों का अनुसरण कर पुनः हमें उनका स्मरण कराया। महामना विदुर, आचार्य चाणक्य, महाराज भर्तृहरि आदि मनीषियों ने अपने विधिनीतिवचनों से सुख-शान्ति तथा समृद्धि के प्रशस्त मार्ग पर चलने के लिए पुनः पे्ररित किया, किन्तु अविवेकग्रस्त आधुनिक मानवजाति को श्रुतिस्मृति के विधिनीतिवचन मूर्खतापूर्ण एवं हास्यस्पद प्रतीत होते हैं।

सूख का मूल धर्म है, इसके स्थान पर सुख एवं समृद्धि का आधार अधर्म एवं अनीति प्रतीत होते हैं। धर्मविरुद्ध आचरण या अनैतिकता से भले ही कोई व्यक्ति करोड़पति या अरबपति बन जाये, किसी की सम्पत्ति का अपरहण कर ले, बलात् किसी का उपभोग कर लें किन्तु इससे उसे सुख-शान्ति तथा वैभव की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

सुख या रसानुभूति का आधार हमारा अन्तःकरण है। मन, बुद्धि आदि का विषय के साथ तद्रूपता या तन्मयता ही सर्वविध सुखों का मूलाधार है। दार्शनिक दृष्टि से कहें तो मन की एकाग्रता ही सांसारिक सुखानुभूतियों का एकमात्र कारण है। जब हम किसी सुन्दररूप का दर्शन, मधुर संगीत का श्रवण अथवा सुमधुर रस का आस्वादन कर रहे होते हैं तब इन विषयों के माध्यम से हमारे मन, बुद्धि आदि अन्तःकरण तदाकार हो चित्तवृत्तियों की शान्तता से सुखानुभव कराते हैं। अपरतः कोई भी मनुष्य आत्मा के गुण, धर्म एवं स्वभाव के विरुद्ध अधर्म, पापाचरण या अनैतिककर्म करता है तो उसके मन में स्वाभाविक भय, लज्जा, संकोच आदि का भाव उत्पन्न हो जाता है।

वेद न केवल प्राचीनतम ग्रन्थ हैं अपितु सब सत्यविद्याओं का आदि स्रोत है। मनुष्य तथा देश के निर्माण की संकल्पना को व्यवहारिक रूप से प्रतिपादन करने में जितना वैदिक साहित्य का स्थान महत्त्वपूर्ण है उतना संसार के किसी भी साहित्य का नहीं है। जीवन के उदात्त मानवीयमूल्यों की अभिव्यक्ति वैदिक साहित्य में  पग-पग पर दृष्टिगोचर होती है। इसीलिए हमें वैदिक साहित्य का स्वाध्याय करना चाहिए।

वेद का ज्ञान समस्त मानव तथा प्राणियों के हित को द्योतित करते हुए आदेश देता है कि मनुष्य को अपने कर्तव्य पालन करने में सदैव उद्यत रहना चाहिए। यह कर्तव्य व्यक्तिगत भी है और समष्टिगत भी। मनुष्य का सोचना, समझना और एक निष्कर्ष तक पहुॅंचना, उसके कर्तव्य का हिस्सा ही है। यह कर्तव्य दिव्यमन से शुचितापूर्ण हो, सामुदायिक हो तो निश्चय ही सर्वहितकारी कार्य बिना किसी समस्या के पूर्ण हो सकते हैं। मनुष्य की सोच-समझकर निर्णय लेने की नीति समाज में संगठन को जन्म देती है। अथर्ववेद में कहा गया है कि सं जानामहै मनसा सं चिकित्वा। मा युष्महि मनसा दैव्येन।। (अथर्व.-७/५२/२) अर्थात् हम मन से उत्तम  ज्ञान प्राप्त करें, ज्ञान प्राप्त करके एक मत से रहें तथा परस्पर विरोध न करते हुए दिव्य मन से युक्त होवें।

वैदिक मान्यता के अनुसार सामाजिक संगठन में इकट्ठे होने की भावना होनी चाहिए, साथ ही एक मन और वाणी से परमात्मा की उपासना करने का भाव भी होना चाहिए, क्योंकि सामुदायिक उपासना में सब मनुष्य एक दूसरे से जुडे़ हुए होते हैं। जैसा कि समेत विश्वे वचसा पतिं दिव दिव एको विभूरतिथिर्जनानाम्। स पूव्र्यो नूतनमाविवासत् तं वर्तनिरनु तं वर्तनिरनु वावृतएकमित्पुरु।। (अथर्व.-७/२१/१)  यह मन्त्र कहता है – परमात्मा दिव्य है, सर्वव्यापक है, पुराने और नये सबमें व्याप्त है। उसके प्रति सब इकट्ठे होकर एक वाणी से उसके यशोगीत गायें।

मानवीय दृष्टिकोण को प्रतिपादित करते हुए वेदों में कहा है कि तुम बस एक दुसरे से प्रेमपूर्वक सत्य, प्रिय एवं हितकर भाषण करते हुए आगे बढ़ो, पृथक्-पृथक् मत होओ, परस्पर विरोध मत करो, सम्मिलित होकर रहो।

असत्य, अधर्म, अनीति के प्रति सबके अन्तःकरण में अश्रद्धा, भय लज्जा, संकोच आदि के भाव   उत्पन्न होते हैं तथा सत्य, धर्म, नैतिकता के प्रति सबके अन्तःकरण में श्रद्धा आदि का भाव  परमेश्वर ने स्वभावतः उत्पन्न किया है। अधर्म या अनैतिक आचरणजन्य इन अश्रद्धा भय आदि से हमारा मन अशान्त हो जाता है। ऐसी मनःस्थिति में सुखानुभव नहीं होता है अपितु नकारात्मकभावों से हमारा मनोमय शरीर सन्तापित होता है, जो कि विविध परीक्षणों से प्रमाणित हो चुका है।

विषमभाव अशान्ति और दुःख का प्रयोजक है तथा समभाव शान्ति और आनन्द का आविर्भावक है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव मनुष्यों को अपने लौकिक व्यवहारों में भी होता रहता है। परमार्थ अर्थात् कल्याणमार्ग में तो इसका (विषमभाव) त्याग अनिवार्य है। अतः विषम भाव का त्याग विष के समान करके अमृत के समान समभाव को धारण करने के लिए सब मनुष्यों का संकल्प, निश्चय तथा व्यवहार समभाव वाला होना चाहिए, सब मानवों के विचार समान हों, जिससे प्रत्येक का कल्याण होगा। इसी प्रकार हमारा अन्तःकरण होवे। यह समता की भावना ही  संगठन को दृढ़ बनाती है, समता की भावना मनुष्यमात्र में ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र में होनी चाहिए।

जीवन में सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है। अतः वेदों में अनेकत्र अग्निस्वरूप परमेश्वर से सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने की प्रार्थना करते हुए एक मन्त्र में कहा गया है अग्ने नय सुपथा राये   इस मन्त्र में सर्वप्रकाशक परमात्मा से बुद्धियों को सन्मार्ग में प्रेरित करने की अभ्यर्थना करते हैं। वैदिक जीवनपद्धति में उपासना एवं यज्ञ को जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। उपासना एवं यज्ञों के द्वारा आत्माग्नि को परमप्रकाशस्वरूप परमात्मा के समीप पहुॅंचा जा सकता है। जहाॅं प्रकाश ही प्रकाश है, ज्ञान का दिव्य आलोक परमज्योति है, जिसके प्रकाश से जीवन में कोई भी अनैतिक कार्य व पापाचार नहीं हो सकता। ऐसे भाव मनुष्य के अन्तःकरण में जब निहित होंगे तब लोभ, मोह, काम, क्रोध, द्वेष, हिंसा आदि आसुरीय प्रवृत्तियाॅं स्वतः ही समाप्त हो जायेंगी।

इसलिए हमें वेद के स्रोत से आत्मप्रकाश के स्रोत का उदयन करना चाहिए। यही हम सबका परम मार्ग व उद्देश्य है। आओ! वेद के स्रोत से अभ्युदयपथ के पथानुगामी होवें……

 

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